________________
७० ] सोलाकारण वर्ष । • एक प्रकृति शेष थी उसे ) क्षय करता है। पश्चात् बसवेंसे
एकदम बारहवें क्षीणकषाय नाम गुणस्थानमें पदार्पण ( ग्यारहवें उपशांतकषाय गुणस्थानमें उपशम घेणी बढ़नेवाला ही जाकर , पीछे पड़ जाता है, क्षपकवाला नहीं जाता है ) उपांत्य समयमें (अन्त के समान हिले ; नि, और सपना का तो दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका क्षय करके अन्तके समयमै मति, . बुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पांचों शानोंको ढकनेवाली पांच ज्ञानावरणीय. चक्षु, अचक्ष , अवधि और केवल इन चार दर्शनको रोकनेवाली दर्शनावरणीय, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीयं (बल) इन पांच लब्धियोंको रोकनेवाली अन्तरायकी, इस प्रकार चौदह प्रकृतियोंको क्षय करके सयोगकेवली नाम तेरहवें गुणस्थानोंमें प्रवेश करता है, यहांतक कुल प्रेसठ प्रकृतियोंका भय हो जाता है। ऊपर बताई हुई ज्ञानावरणीय पांच, पर्शनावरणीय नव, अन्तरायकी पचि, मोहनीयकी अट्ठावीस, नामकर्मकी तेरह, इस प्रकार साठ और देवायु, नरकायु और तिर्यचायु ये तीन आयुकी कुल वेसठ (६३) हुई।
जब जीव इस प्रकार उक्त ६३ प्रकृतियोंका क्षय कर लेता है तब उसे अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन अनंत सुख और अनंत वीर्य (बल) प्राप्त होता है-आत्माकी स्वाभाविक दिव्य शक्ति प्रगट होती है । क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, जन्म, अरा, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, अरति, स्वेद, खेद, मद, मोह, रति, निद्रा ये अठारह प्रकारके दोष बिलकुल उसमें नहीं रहते हैं, उसपर उपसर्ग व परोषहोंका जोर नहीं चलता है, तब वह जीव सकल परमात्मपरको प्राप्त हो जाता है, उसके नवीन कर्मोका