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सोलहकारण धर्म। एकवारमें साडेतीन कोटी रत्नष्टि करते हैं ।।
खब प्रभुका जन्म होता है, तब इन्द्रादिक देवोंका आसन कंपायमान हो जाता है, तीनों लोकके जीवोंमें हर्ष क्षोभ और कुछ समयके लिए शांति उत्पन्न हो जाती है, तब वे इन्द्रादिक देव उस महाप्रभुका अवतार हुआ जानकर उत्सव करते हैं, प्रभुको मेरुगिरिपर ले जाकर अभिषेक करते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, वादिन बजाते हैं जय जयकार करते हैं ।
पश्चात् जब प्रभुको संसारसे वैराग्य होता है, तब देवऋषि आकर स्तुति करते हैं, फिर इन्द्रादिक देव प्रमका अभिषेक करके निकटके किसी वनमें प्रभुको ले जाते हैं । यहांपर प्रभु संसारके स्वरूपका चितवन करके ( अनुप्रेक्षाबों का चितवन करके ) अपने शरीर परसे जड़ वबाभूषणोंको उतार देते है। और सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करके घ्यानमें निमग्न हो जाते हैं, उसी समय प्रभुको मनःपर्यय ज्ञान होता है और इन्द्रादिक देव स्वस्थानको चले जाते हैं । पश्चात् तप और ध्यानके प्रभावसे घातिकर्मीको क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर इन्द्रादिक देवोंकी निर्मापित सभा (समवसरण) में स्थित होकर चतुर्गतिके जोवोंको दुःखस छुड़ानेवाले सच्चे धर्म ( मोक्षमार्ग) का उपदेश करते हैं और आयुका निःशेष होते ही सिद्धपद प्राप्त करते हैं।
यद्यपि ये अवतारिक पुरुष अर्थात् तीर्थंकर कहाते है, ___ * तीर्थंकरके गर्भादि पंचकल्याणक और समवसरणका वर्णन ग्रन्थान्तरोंमें जैसे-रत्नकरण्ड या धर्मसंग्रहश्रावकाचार, यादिनाय पुराण, समवसरण विधान आदिमें विस्तार सहित लिखा गया है वहांसे देखा ।
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