________________
७४ ]
सोषकारण वर्म ।
जाते हैं और उस (मूर्ति) के साम्हने पूजन भी महंत ही की होती है । न कि जड़ मृतिका रतवपूजनादि किया जाता है जैसा कि बहुत से लोग मान बैठे हैं।
मूर्ति तो जड़ है, कुछ जड़की पूजा थोड़े ही की जाती है। पूजा तो की जाती है उस जीवनमुक्त ( शरीर सक्न परमात्मा ) अर्हत प्रभुकी, जो कि सच्चिदानंद चैतन्य स्वरूप है, और वह भूति उसकी अतिम अवस्थाको स्मरण करानेवाली है, इसलिये इसके सन्मुख पूजन, स्तवनादि जड़मूर्तिका नहीं कितु चैतन्य प्रभु अर्हत हो की पूजा, स्तवन समझना चाहिये । कारण से कार्यकी सिद्धि होती है, इसलिये वीतरागमुद्रारुप मूर्ति के दर्शन से ही वीतराग भावोंकी सिद्धि होती है। तात्पर्य- मूर्ति ध्यानादि बर्हत गुण चितवनके लिये निमित्त कारण है, और उपादान कारण तो अपने ही भाव हैं, इनका निमित्त नैमित्तिक संबंध है । इसलिये साक्षात् अर्हत देव के अभाव में उनकी अतिम ध्यानावस्थाकी परम दिगम्बर वीतराग शांति मुद्रायुक्त मनुष्याकार मूर्ति स्थापित करके ही अहंत पूजन, स्तवन करना चाहिये । इसीको अद्भक्ति नाम भावना कहते हैं ।
c.
सोही कहा है
J
I
देव सदा अहं भजो जिह, दोष अठारह किये अति दूरा । पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किये सब चूरा || दिव्य अनंत चतुष्टय शोभित, घोर मिल्थ्यो निधारण शूरा। ज्ञान कहे जिनराज अराधो, निरंतर जे गुण मंदिर पूरा ॥ १० ॥ || वद्भक्ति भावना ॥