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सोलहकारण धर्म। रूप परिणमता है और इस प्रकार अधःकरण अपूर्वकरण करके अनिवृत्तिकरणके अन्त समयमें इन ५ प्रकृतियोंको पूर्णतया उपशमाकर अनन्तर समयमें सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है । सो इस प्रकार यह जीव कितने ही वार तो कर्णलब्धिक यतिरिक्त चार लब्धियें पा करके भी कृतकार्य नहीं होता है । और जब इसका भवस्थिति केवल अपुगदलपरावर्तन कातमात्र शेष रह जाती है तब यह उपजम सम्यग्दर्शनको प्राम होता है।
सो यह सम्यादर्शन अन्तर्मुहूर्त कालमात्र रहकर छूटे और तब फिर पहिलेके समान मिथ्यात्वी हो जाता है परन्तु इतना विशेष है कि मिथ्यात्वका द्रव्य तीन मागरूप हो जाता हैमिथ्यात्व, मिश्र मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व । इस प्रकार कईवार यह जीव उपाम सम्यक्त्वको ग्रहण करकर छोड़ता है तब कभी क्षयोपशम सम्यक्त्वको पाता है, और पश्चात् जब केवल ३-४ मत मात्र संसारकी स्थिति रह जाती है तब शायक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सो यह सम्पपरय फिर नहीं छाटता है किंतु यह जीवको संसारसे छुड़ाकर परमपदको प्राप्त करा देता है । सो ऐसे सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर यह जीव अपने सच्चिदानंद स्वरूपका चितवन करता है उस समय यह अपने आश्माको पुद्गलादि जड पदार्थोस भिन्न अखण्ड, अविनाशी, चैतन्य. सर्व कर्मोपाधिसे रहित, जानानन्द स्वरूप, अनन्त शक्तिवाला अनुभव करता है । सम उसके परम अनहादरूप भाव होते है । और उस समय वह बैलोफ्यफे इन्द्रियजनित सुखोंको अपने सच्चिदानंद स्वरूपके अविनाशी सुखोंके साम्हने तृणवत्, विनाशोक मीर कर्मजनित पराधीन उपाधि मात्र समझता है। इस