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सोलहकारण धर्म ।
(१०) अर्हद्भक्ति भावना ।
अद्भक्ति- अर्थात् अहं ( जिन या आप्त ) भगवानकी उपासना करना । बर्हन्त, जिन और आप्त ये तीनों एकथंवाची हैं । अर्हन्त उसे कहते हैं, जो भव्यजीव अपने सम्यग्ददन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के वलसे चारों घातिकर्म-ज्ञानावरणीय अनंतज्ञानको ढकनेवाला, दर्शनावरणीय संपूर्णपने देखनेका शक्तिको ढकनेवाला, अन्तसको रोकनेवाला अर्थात् विघ्न करनेवाला और मोहनी - सम्यग्दर्शन और सम्यकुचारित्र ( जिसके कारण आत्माको अनंत सुख होता है ) को रोकनेवालेको नष्ट करके सयोगकेवली नामके तेरहवें गुणस्थानको प्राप्त हुआ है ।
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यह जीव अनादि कालसे कर्मका प्रेरा चतुर्गतिकी चौरासी लक्ष योनियों में परिभ्रमण करता है । सो अनन्तकाल तक भ्रमण करते करते काललब्धिके प्रभावसे जब कभी जीव क्षयोपशम ( सदसद् विवेषरूप बुद्धि ( ज्ञान ) का पाना, विशुद्ध ( अपने कल्याणकारी उपदेशको ग्रहण करनेयोग्य कषायकी मन्दतारूप भाव ), देशना ( मोक्षमार्ग के उपदेशका लाभ ) प्रयोगलब्धि ( आयु कर्मके सिवाय अन्य कर्मोकी स्थिति अन्त: कोटाकोटि सागर प्रमाण रह जाना ) और करणलब्धि ( सम्यग्दर्शनके सन्मुख भव्य जीवके समय समय अत्यन्त विशुद्धता लिये हुए, बोर समय समय प्रति पापकर्मो की स्थिति व अनुभागको घटाते हुए, तथा पुण्य कर्मोकी स्थिति और अनुभागको बढाते हुए पट् गुणी हानि - वृद्धिको लिये गुणश्रेणी गुणसंक्रमणादि करता हुआ - अनन्तानुबन्धी चौकड़ी तथा मिध्याश्वके द्रव्यको अन्य प्रकृतियों