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सोलहकारण धर्म ।
[ ६५ गृहस्थोंकी यावृत्य-- उनके योग्य औषधिका उपचार करना, उठाना बैठाना, सुलाना. मलमूत्रादि साफ करना वरून बदलना, पथ्य भोजन कराना, धर्मोपदेश देकर धैर्य बंधाना, उसके कुटुम्बी व आप्रितजनोंको शांति देना, यदि निर्घन हैं तो उसको उसके आश्रितजनोंके भोजन वषादिका उचित प्रबंध कर देना इत्यादि, यही सेवा है।
वैयावृत्य करनेवाला किसीपर उपकार नहीं करता है, किन्तु यह उसका कर्तव्य ही है। उसे अपनी सेवाका अभिमान
न होना चाहिये, लोहो गर बार दबाना पाहिये कि I "यदि मैं न सेवा करता तो भिनक जाता" इत्यादि, और न । उसको उसके प्रतिफलकी इच्छा रखनी चाहिये । प्रतिफल तो मिलता
ही है तब व्यर्थ क्यों ऐसी कुवासनाओंसे अपनी आत्माको कलुषित किया जाय ? सेवा करनेवाला यथार्थ परका नहीं किन्तु अपना निजका ही उपकार करता है क्योंकि रोगीकी सेवा तो यदि उसका शुभ उदय हो और असाताका क्षयोपशम हो तो अवश्य ही कोई न कोई उसकी सेवा करनेको मिल ही जाता हैं, परन्तु अभिमानी सेवकके हाथसे वह सेवा करनेको शुभ अवसर चला जाता है जिसके कारण वह महत्पुण्य कार्य से वंचित रह जाता है।
यदि व्यवहारदृष्टिसे भी देखा जाय तो भी संसारमें विना परस्परकी सहायताके कार्य नहीं चल सकता है । एक आदमी दुसरेका कोई उपकार करता है तो दूसरा भी पहिलेको उसका बदला किसो व किसी रूपमें चुका ही देता है । मालिक यदि नौकरका और उसके कुटुम्बका पोषणके निमित्त द्रव्यसे उपकार करता है तो नौकर भी सेवा चाकरीसे मालिकका उपकार करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि संसारमें सब जीवोंका
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