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सोलहवारण पन कर दुर्गतिमें न जा पड़े , कोई सहाई न देखकर अपने श्रवान ( दर्शन ) और चारित्रसे विचलित न हो जाय, अथवा इन असहाय, रोगी, अस्वस्थ जनोंको देखकर अन्यान्य धर्मात्मा पुरुष धर्म में शिथिल न हो जाय, इत्यादि ।
यह सेवा ( वयावृत्य) दो प्रकारसे होती है-(१) भक्तिसे (२) करुणासे ।
भक्तिपत्रा-अर्थात् भक्त (सेवक ) से जो दर्शन (श्रद्धा) ज्ञान, चारित्र, तप आदि गुणोंमें अधिक हो उसको सेवा करना । अर्थात् भक्त जिन महात्माओंके गुगों में आशक्त हो, अयवा जिनके गुण अनुकरणीय हों, और भक्त उनके द्वारा सद्गुणोंकी प्राप्ति अपने आपमें वे अन्यजनोंमें करना चाहता है इत्यादि इसलिये उनका सेवा टहल करता है. कि जिससे उन महात्माओंका शरीर स्वस्थ रहे और उनके द्वारा धर्म व झानकी प्रवृत्ति होतो रहे, जिससे वे स्वयम् धर्ममार्गमें दृढ़ रहकर अन्य प्राणियोंको भी दृढ़ रख सकें, ताकि सेव्य और सेवक दोनोंका कल्याण हो, दोनों सच्चे सुखको प्राप्त हो इसलिये उनको सेवा टहल करता है क्योंकि कहा है- "न धर्मों धामिविना" अर्थान् वर्मात्माके बिना धर्मको प्रवृत्ति नहीं रह सकती है । इसे भक्ति सेवा कहते हैं । इससे अनुकरणीय गुणोंको मुख्यता देखो जाती है, जैसे मुनि आदि चतुविध संघको तथा अन्य सावीजनोंकी सेवा सुश्रूषा करना, इत्यादि ।
करुणा-सेवा-इसमें गुणदोषोंको योर दृष्टिपात न करके केवल दया ही को प्रधानता रहती है। यह सेवा संसारके नर पशु आदि समस्त दुःखित, दोन, असहाय, निबल, रोगो और अनाय प्राणियोंकी निःस्वार्थ वृत्तिसे को भाती है ।