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सोलहकारण धर्मं ।
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थोड़े हैं, सो उनके भी न मिलने पर सबसे उत्तम वान विद्यार्थियों को हो सकता है, अर्थात् वे अबतक विद्या अध्ययन करते हैं, वहांतक उनके समान सत्पात्र तो कदाचिस ही कोई मिले ।
बस उन विद्यार्थियों ) के विद्योपार्जनके भाग जो जो अड़चने होवें उनको यथासंभव दूरकर मार्ग निष्कंटक कर दिया जाय, और भेदभाव रहित सर्वसाधारणको सहियाका दान दिया जाय। जो विद्यार्थी भोजन चाहें उन्हें भोजन, किसीको पुस्तकें, फीस, रहनेको स्थान इत्यादिका मुभीता कर दिया
जाय ।
बस, इस समय ये हो सत्पात्र हैं। इनके लिए विद्यालय ( कालेज ) पाठशाला ( स्कूल्स ), छात्राश्रम, गुरुकुल इत्यादि खोल दिए जाय, उनमें मुख्यगोणका भेद लिए हुए व्यवहारिक और धार्मिक शिक्षणका उचित प्रबन्ध कर दिया जाय, योग्य निरीक्षक परीक्षक नियत किये जांय छात्रवृत्ति और पारितोषिक आदिका प्रबन्ध किया जाय, बस यही सत्पात्रदान हो सकता है ।
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यद्यपि उपर औषधि शास्त्र, अभय और आहार चारों ही प्रकारका दान कहा है, परन्तु उक्त चारों दानोंमें वस्त्र, वस्तिकादि पात्र योग्य पदार्थ भी गर्भित है, जैसे साधुओंको पीछी कमंडलु शास्त्रादि श्रावकोंको पात्र वर्तन ), वस्त्र, वस्तिका, पुस्तकादि भी गर्भित है, । धर्मशाला बनवा देना, दानशाला, औषधालय खुलवाना, भूलोंको मार्ग बतानेका प्रबन्ध कर देना यह सब ही उत्तमवान है ।
दान देना गृहस्थोंका कर्तव्य है और पात्रोंका कर्तव्य है कि दानका सदुपयोग करना ।