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सोमहकारण धर्म। वर्तमान कालमें सुपात्रोंका प्राप्त होना तो दुर्ल मसा ही है, मोर सुपात्र कुपात्रको परोक्षा करनेवाले व जानकाय मो अल्प हैं। इसलिए बाह्य भेष (लिंग) हो को प्रधानता प्रायः देखो जाती है। सो बाह्य भेषधारी यथार्थ प्रवृत्ति करनेवाले भी कदाचिन हो देखे जाते हैं. तब क्या दानको प्रथा हों उठा देना चाहिये ? क्योंकि अपात्रको दान देनेको अप्रक्षा तो द्रव्यको जंगल में फक देना अच्छा है, उससे अनर्थ तो न बढ़ेगा, केवल द्रव्य हो का व्यय है । और सुपात्र मिलना दुर्लभ है। ___तो उत्तर यह है कि दान ( त्याग) से अपना मोहभाष कम हाता है । इससे उदारता बढ़ती है, स्वार कल्याण होता है. इसलिये दानको प्रया चलाना तो आवश्यक है । अब रहा पात्रापारका विचार, सो उपरके नकशेसे मिलान करके देखना। यदि सुमात्र मिल जावें ता धन्यभाग समझकर भक्तिपूर्वक दान देना । इस सुपात्रदान का फल ऐसा है, जैसे --वटका बाज अति अल्प होनेपर भी बहुत बड़ा वृक्ष उत्पन्न करता और बहुत फलता है । इसोप्रकार सुपात्रोंको दिया .हुवा दान स्वर्गादि सुख तथा अनुक्रमसे मोक्षका दाता होता है। कुपात्रांको दिया हुवा दान, कुभोगभूमि आदिको प्राप्त कराता है. अथवा तिर्यचति में किसो राजादिके घोड़ा हाथो आदिको पर्यायको प्राप्त कराता है । राजाके घोड़ी हाथियों आदिको मनुष्यांसे भी अधिक सुख ता होता है, परन्तु मनुध्यांके जैसो स्वतंत्रता नहीं होती है। ___ अपात्रदानका फल नर्क निगोद है। इसलिये यह तो सर्वया त्याज्य है । इसलिये वर्तमान कालमें नग्न मुनिलिंगवारी २८ मूलगुणांसहित मुनि न मिले तो ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारो स्वागो, उदासीनश्रुत्तित्राले बिरक्त श्रावक तो मिलते हैं। परन्तु