Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ सोलहकारय श्रम । [ ५५ 1. यद्यपि यह शरीर ( नरदेह ) यप, तप, तादिके द्वारा मोक्षका साधनरूप बाह्य कारण है, और इसीलिये मुनिराज की इस शरीर की यथासंभव रक्षा करनेके लिये उदासीन रूपसे गृहस्थोंके द्वारा प्राप्त हुए शुद्ध प्रासु निर्दोष निरंतराय आहारा तथा औषघादि प्रहृण करते हैं । परन्तु देखते हैं कि उपाय करना व्यर्थ है अर्थात् इस (शरीर ) की रक्षाकी चिंता करने से भी रक्षा न हो सकेगी, किन्तु उल्टा बेद हो होगा तो वे इससे ममत्व छोड़कर एकान्त स्थानमें एकाकी किसी एक आसन से आरमध्यानमें लीन हो जाते हैं। वे यम ( यावज्जीव) अथवा नियम ( रोगादिक प्राणघाती उपसर्गके दूर होनेतक घडी, पहर दिन, पक्ष, मास अयनादिका प्रमाण ) करके प्रतिज्ञा पूर्वक आये हुवे उपसर्ग व परीषह व्यादिको प्रसन्नता से सहन करते हैं। और अतमें शरीरका त्यागकर स्वर्ग मोक्षादि गतिको प्राप्त करते हैं । उपसर्ग व परोषहोंकि आनेपर ध्यान तभीतक विचलित हो सकता है, जबतक कि साधकका शरीरसे कुछ भी प्रेम हो, सो जब शरीर से कुछ प्रेम नहीं रहता है तब आत्माको ( जो इस जड़ पुद्गलमय शरीरसे सर्वथा भिन्न स्वाति केवलज्ञानानन्द स्वरूप चैतन्य अमूर्तीक अखंड अविनाशी अनूप पदार्थ है ) कैसे दुःख हो सकता है, इत्यादि । इस प्रकार विचार करके आत्मध्यानमें निमग्न हो जाते हैं । इस प्रकार से समताभावपूर्वक दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार आराधनाओंको माराधते हुवे जिनका मरण होता है, सो समाधिमरण कहलाता है । यह समाधिमरण उन्हींका हो सकता है कि जिनको चिरकालसे उपसर्ग व परीषहादि सहन करने और विषय

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129