Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 48
________________ : ६ ] सोलइकारण धर्म । दान न देनेसे भी लक्ष्मी स्थिर नहीं रहेगी, न वह साथ ही जावेगो, तब क्यों उसे (लक्ष्मीको जो संचय करने में कष्ट "और रक्षा करने में कष्ट दे, जोडकर मिट्टी पसनको ताट गों ही निरुपयोगी बनाई जाय ? इसलिये यही कर्तव्य है कि कष्ट व परिश्रमसे उपार्जन को हुई लक्ष्मीको दानमें लगाकर सदुपयोग किया जाय । ऐसा कहा भी हैपात्र चतुर्विधि देख अनुपम, दान चतुर्विधि भारसे दीजे । शक्ति समान अभ्यागतकी, निज आदरसे प्रमिपत्त करीजे ॥ देवत जो नर दान सुपात्रहि, तास अनेकहि कारज सिझे । ज्ञान कहे शुभ दान करे तो, भोग सुभूमि महा सुख लोजे । इति शक्तितस्त्याग भावना ॥ ९ ॥ mara . .. (७) शक्तितस्तप भावना। तप-सम्यक् प्रकार इच्छाओंका निरोध करना सो तप है। यह तप बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है और फिर दोनोंके छः भेद हैं, इस प्रकार बारह प्रकार तप हुए । अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये ६ बाह्य तप हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ब्युत्सर्ग और ध्यान ये ६ अन्तरंग तप हैं।

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