________________
सोलहकारण बर्म कायक्लेश-शरीर से निर्ममत्व होकर क्ष धादि परिषहोंको नपा चेतन अचेतन पदार्थों द्वारा उत्पल हुए उपसर्गोको सहन करना, कठिन तप करना।
प्रायश्चित-प्रमादके निमित्तसे लगे हुए दोषोंकी शुद्धि करना। विनय-पूज्य पुरुषका आदर करना । वंयावृत्य-मुनियोंकी सेवा टहल करना ।
स्वाध्याय-प्रमादको छोड़ ज्ञानोपार्जन करना, कराना, वांचना, पूछना, अनुप्रेक्षा करना, शुद्ध घोखना तथा उपदेशादि देना।
व्यत्सर्ग-बाह्याभ्यंतर परिग्रहोंसे सर्वथा ममत्व त्याग करना।
ध्यान-सब ओरसे चिताको रोककर एक ओर लगा देना । ये ध्यान चार प्रकारके हैं । दो ध्यान रौद्र और आर्त तो निकृष्ट अति पाज्य है, सागले माग्य है। और दो ध्यान धर्म और शुक्ल उत्तमोत्तम है. ये स्वर्गादिक उच्च गति और मोक्षके कारण उपादेय हैं ।
इस प्रकार तपके बारह भेद कहें परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं है कि जिस प्रकार कहा गया है उसमें कुछ भी न्यूनता हो ही नहीं सकती है । नहीं नहीं, न्यूनता अपनी शक्तिके अनुसार हो सकती है । जैनधर्ममें कोई भी प्रतादिक ऐसे नहीं हैं कि जो सर्वसाधारण उनसे वंचित रह जांय, किन्तु सभी अपनी अपनी शक्ति अनुसार धारण कर सकते हैं । विशेषता केवल यही है कि जितना हो, वह सना हो. विपर्यय मार्गमें ले जानेवाला न हो। क्योंकि थोडेसे अधिक और पूर्ण तो हो सकता है परन्तु विपर्ययका यथार्थ होना कष्टसाध्य है।
-विनयका स्वरूप विनयसम्पन्नता मामध