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सोलहकारण धर्म ।
विरक्त सच्चे कल्याण करनेवाले दिगम्बर जैन मात्र ही होते हैं । उनके सिवाय शेष उपर कहे अनुसार जो आरम्भी व परिग्रही गुरुमोंको मानना मो गुरुमृढ़ता है, त्याज्य है ।
लोक (धर्म) महता ।
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विना समझे अर्थात् हिताहित, गुण अवगुण आदिका विचार विना किये, जो देखा देखी धर्म समझकर किसी कार्यमे प्रवृत्ति करना सो लोकता है। जैसे नदीमें नहाने से, पहाड़ पर से गिरने से संडे मुस्तन्दे भिखमंगों को खिलानेसे, तीर्थोंमें जाकर जीमनवार करनेसे, मरनेके बाद श्राद्धादि पिण्डदान करनेसे, दूसरोके पुत्र पुत्र्यादिका विवाह करा देनेसे बालू रेत व पत्थरोंका ढेर करने; सती होना, इत्यादि सब लोक मुहता है। कहा है
कोटि जन्म तप तर्षे ज्ञान बिन कर्म शरें जे । ज्ञानीक क्षण में त्रिगुप्ति, पड़न
दरें ते ।
( छह ढाला )
अर्थ - अज्ञानी करोड़ जन्मों में तप करके जितने कर्मोकी निर्जरा करता है ज्ञानी उतने क्या उनसे भी अनन्तगुणे कमकी निर्जरा मन, वचन और कायकी क्रियाको रोककर क्षणभर में कर देते हैं । इसलिये सम्यग्ज्ञान और श्रद्धासहित ही क्रिया फलदायक होती है, धर्म कहाती है । शेष क्रियासं कुछ लाभ नहीं, व्यर्थका कायक्लेश परिश्रम और द्रव्य व समयका व्यय करना है |
इस प्रकार ये तीन मूढता और उपर कहे आठ प्रकार के मद ( अहंकार), छः अनायतन और निःशंकित आदि गुणोंसे