________________
२२ ]
सोतहकारण मर्म । (२) विनयसम्पन्नता । विनय-अर्थात् नम्रतापूर्वक निष्कपट भावसे आदरसत्कार करना । विनय पांच प्रकारकी होती है-दर्शन, ज्ञान चारित्र, तप और उपचार विनय ।
दर्शनविनय-सम्यग्दर्शन निर्दोष धारण करना तथा सम्यगरदृष्टी जीवोंका यथासंभव आदरसत्कार करना ।
ज्ञानविनय-सम्यग्ज्ञानको धारण करना तथा सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंका तथा सम्यग्ज्ञानका विनय ( यथासंभव आदरसत्कार) करना और उन ग्रन्योंका जिनमें सम्यग्ज्ञानका कथन किया गया है. यथायोग्य पूजनादि करना, परन्तु केवल ग्रन्थोंकी पूजन व उन्हें अच्छेर वेष्टनोंमें लपेट कर रख देना तथा नमस्कार इत्यादिको ही ज्ञानविनय न समझ लेना चाहिए । यथार्थ में ज्ञानविनय वही है, जो सम्यग्ज्ञानको धारण करना, पढ़ना, पढ़ाना उपदेश सुनकर सरलता व नम्रतापूर्वक धारण करना, उपदेश देना, सम्यग्ज्ञानका प्रचार करना, ग्रन्थोंका प्रकाश व प्रचार करना इत्यादि । __चारित्रविनय-सम्यक्चारित्र यथाशक्ति रुचिपूर्वक कल्याण कारी जानकर धारण करना, तथा सम्यकचारित्रके धारी पुरुषोंम पूज्यभाव रखना, उनकी विनय सुभूषा सत्कारादि करना ।
तपविनय-पथाशक्ति इन्द्रियोंको वश करके मनको वश करना और सम्यक् तपधारी साधु तपस्वियोंमें पूज्य भाव रखना, उनकी विनय सुश्रूषा वयावृत्त सत्कारादि करना ।
उपचारविनय--अपनेसे गुणाधिक्य पुरूषों में भक्तिभाव