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सोलहकारण धर्म |
वैयावृत कराना, भूत या भावी विषयभोगोंका विचार करना, दूसरोंका विवाहसम्बन्ध मिलाना, स्वपति व पत्नीमें भी अत्याशक्त रहना, कामाङ्गीको छोड़कर अन्य अंगों द्वारा कामचेष्टा करना, राकेश कृषि त पदार्थोंसे निर्मित नरनारियों व उनके अंगोंकी कल्पनाकर उनके साथ या पुरुष पुरुष या खी खीके साथ कामक्रीड़ा करना अथवा अपने ही हस्तादि अंगों द्वारा वीर्यपात करना सो सर्व हो व्यभिचारसेवन करना है, ब्रह्मचर्य व्रतको दूषित करना है, तथा अपने आपको अपने अनुयायियों सहित चार दुःखसागरनर्क में ढकेलना है। इसलिये निर्दोष ब्रह्मचयं पालना चाहिये । [ब्रह्मवयं विना समस्त जप, संयम, ध्यान ढोंग मात्र है, विना अंककी बिंदियोंवत् व्यर्थ है ।
निर्दोष ब्रह्मचर्यको पालनेसे हो समस्त व्रत निर्दोष पचते हैं सो ही कहा है
शील सदा सुखकारक है, अतिचार विजित निर्मल कीजे । दानव देव करें तिस सेव करें न विवाद पिशाचतीजे ॥ शील बड़ो जगमें हथयार, सुशीलकी उपमा कौनकी दोजे । "ज्ञान' कहे नहिं शीलसमो व्रत, तार्ते सदा दृढ़शील घरीजे ॥ ३॥
इति शीलव्रतेष्वनतिचार भावना ।