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सोलहकारण धर्म |
(५) संवेग भावना |
संवेग — अर्थात् संसारके विषयोंसे भयभीत होना और धर्म, धर्मात्मा तथा धर्म के फलमें अनुराग करना सो ही संवेग - भावना है । संसारके विषयभोग सब इन्द्रियोंके आधीन हैं, और इन्द्रियां शरीरके आश्रित हैं । शरोर रोग जस और मृत्युकर सहित है, अतएव इन्द्रिय विषयभोग भी विनाशवान हैं। विनाशिक वस्तुमें प्रीति करनेसे वियोगके समय अवश्य ही दुःख होता है ।
यदि यह मान लिया जाय कि जबतक शरीरका साथ है, Tea हो इसमें प्रीति करना चाहिए, तो उत्तर 'यह है कि इसका यह भी भरोसा नहीं कि अमुक समय तक स्थिर रहेगा, न जाने श्वास जो बाहर निकलता है, वह फिर पीछे आता है या नहीं। फिर इस शरीरका साथ पाकर अच्छे अच्छे सुगंधित पदार्थ भी दुर्गंधित हो जाते हैं, इसको सम्हालते सम्हालते भो यह दिनोदिन क्षीण होता चला जाता है, सच्चे आत्मोपकारीको सुअवसर पर घोखा दे जाता है, व्रत संयम तपादिक परिवह सहन करनेमें कायरता धारण कराता है । जो लोग निरंतर शरीरका ही दासत्व करते रहते हैं उनका भी शरीर रोगों से परिपूर्ण होता हुआ देखा जाता है । हाय ! जिस शरीरकी इतनी सेवा की जाती है, वह आयुके अन्त होते ही यहीं पड़ा रह जाता है, और पलभर के लिये पदभर भी साथ नहीं जाता । हाय ! यह कैसा कृतज्ञ है ?
सो जब शरीरकी ही यह दशा है, तब शरीर से संबंध रखनेवाले पुत्र, कलत्र, मित्र आदिकी कथाका तो कहना ही