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: सोलहकारण धर्म । किन्तु मूर्तिको उन परमात्मा तीर्थकर देवोंका स्मारक समझकर ही उस मूर्तिके सम्मुख होकर उनके गुणकीर्तन, स्तवन, पूजन करते हैं।
जैनी मूर्तिको परमात्मा नहीं मानते हैं, किन्तु उसे केवल मात्र स्मारक ही समझते हैं. अर्थात् उनकी यह वैराग्यमई शांतमूति उन :महात्माओंके चरित्रोंका स्मरण करानेवाली शांति और वैराग्य उत्पन्न कराने के लिये प्रधान निमित्त कारण है। चाहे वह पत्थर धातु, काष्ठादिकी बनायी जाय और चाहे चित्रपटमें बनायी जाय, परन्तु उस मुर्ति व पटम जिसकी कल्पना है उसका स्मरण मूर्ति व पद देखते ही अवश्य हो जाता है। स्मरण होते ही अनुकरण करने की इच्छा होती है, और अनुकरण करनेसे तत्सदृश हो सकते हैं। इसो अभिप्रायसे मूर्तिकी स्थापना की गई है।
तात्पर्य-ज्ञानका ऐसा ही माहात्म्य है कि ज्ञानियोंको स्मरण रखनेके लिये उनकी मूर्ति तक बनाकर पूजी जाती है । और तो क्या, जिस स्थानमें वे ज्ञानी कभी एकवार भी पधारे होवें, वह स्थान भी पूजने लगता है। अहा ! ज्ञान कसा उत्तम पदार्थ हैं, कि जिसके स्मरण मात्रसे आनंद मा जाता है । इसलिये यदि लौकिक या पारलौकिक अथवा दोनों प्रकारके सुखोंकी इच्छा है, तो निरन्तर सम्यग्ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये । कहा भी हैशान सदा जिनराजको भाषित, आलस छोड़ पड़े जु पढ़ा। दो दशदोष अनेक हि भेद, सुझान मतिं श्रुत पंचम पावे ॥ चौ अनुयोग निरंतर भापत, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे । वान कहे नित ज्ञान अभ्यासते, लोकालोक प्रत्यक्ष दिखावे ॥
इति अभीक्षण-ज्ञानोपयोग भावना ॥ ४ ॥