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सोलहकारच वर्ष ।
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दशा तो ऐसी है जैये---
भैसके आगे बीना बाजे, मैंस रही रोपांय | बैलहिं दोनों षटरस भोजन सो क्या स्वाद लखाय ॥
किसी कविने ठीक कहा है
पूछे कैंसा ब्रह्म हैं, कती मिश्री मिष्ट । स्वादे सो जाने सही, उपमा मिले न ईष्ट ||
यथार्थमें जैसे प्रसूताकी पीड़ाका अनुभव वंध्या नहीं कर सकती है, उसी प्रकार अज्ञानी सच्चे ज्ञानानंदका अनुभव नहीं कर सकते हैं । और व्यवहारमें भी ज्ञानी पुरुष ही सुखी देखे जाते हैं, क्योंकि अज्ञानी तमाम दिन कठिन परिश्रम करने पर भी उदरभर भोजन प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि ज्ञानी पुरुष थोडे परिश्रमसे मनवांछित द्रव्य और भोग सामग्रियां प्राप्त कर लेते हैं। देखो, राजकीय बड़े बड़े न्यायाधीशों आदिके पदों पर विद्वान पुरुष ही शोभा पा रहे हैं। सेठों साहूकारोंके यहां उनकी सम्पूर्ण संपत्तिके अधिकारी एक प्रकार से विद्वान ( उनके मुनीम गुमास्ते ही हो रहे हैं। जहां तहां जितने बड़े बड़े पदाधिकारी मिलेंगे वे सब विद्वान ही होंगे ।
चाहे वह (ज्ञानी ) अन्धा हो, लुला लंगड़ा हो, काना हो, गूगा हो, कुरूप हो, होनांग व अधिक अंगवाला हो, परन्तु उसके पास जो गुप्त रत्न ( ज्ञान ) है उसीके कारण उसका संसार में आदर होता है ।
और घन तो दायादार बंटा सकते हैं. राजा लूटा सकते हैं, चोर चुरा सकते हैं, अग्नि भस्म कर सकती है, परन्तु वह एक ज्ञान घन ही ऐसा है, जो इन सब भाइयोंसे निर्भय है