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सोलहकारण धर्म ।
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वह इस भव नाश होना तो दूर रहा, परन्तु परभव तक साथ जाता है ।
एक विचित्रता इसमें यह है कि यह देनेसे बढ़ता है और न देनेसे घटने की संभावना रहती है ।
राजाका मान उसके जीतेजी उसीके राज्यक्षेत्र में होता है, परन्तु -
ज्ञानीका सम्मान सर्वत्र और सदा होता रहता हैं ।
भाज न तो चौबीसों ( ऋषभनाथसे लेकर महावीरस्वामी तक ) तीर्थंकर विद्यमान हैं, न बाहुबलि भरत आदि केवली, न कुन्दकुन्दाचार्यं, न समंतभद्राचार्य न अकलंकाचार्य, न जिनसेना 'वार्य न अमृतचंद्र कवि, न द्यानतराय कवि, न दौलतराम कवि, न बनारसीदासजी, न भैया भगवतीदास, न वृन्दावन, न भागचंद, न टोडरमलजी, न पंडित आशावरजी, न सदासुखदासनी, न जयचन्दजी इत्यादि ।
परन्तु अहा ! आज भी उनकी वाणी और उनके कृत्योंके कारण वे अमर हो रहें हैं । उनके ज्ञान ही की यह महिमा है कि हम लोग उनको वाणी, उनके अनुभव और उनके हितोपदेशों से आनंद - लाभ कर रहे हैं । हम आज भी उनके इस वसुन्धरापर विद्यमान न होते हुवे परोक्ष रीतिसे उनका सत्कार करते हैं, पूजा करते हैं. उनके स्मारकरूप तदाकार प्रतिबिम्ब (मूर्ति) बनाकर रखते हैं, उस मूर्तिके सन्मुख उनका गुण स्तवन करते हैं । क्या कोई भी जैना किसी मूर्तिकी पूजा करता है ? क्या जैनी मूर्तिपूजक है ? नहीं कभी नही । वे किसी अचेतन मूर्तिकी पूजा कभी नहीं करते हैं,
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