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नहीं है, सब एक ही हैं । इसलिये इनका सेवन करना धर्म और वर्मात्माओं में प्रीति रखना । धर्म में प्रीति उसीकी हो सकती है जो विषयों व कषायों में भासक्त न हो । विषयी पुरुष धर्मात्मा संवेगी वैरागी पुरुषोंकी हंसी उड़ाते हैं, उनको वर्मसेवन करनेमें विघ्न करते है, उपसर्ग करते हैं जिसतिस प्रकार धर्मसे च्युत करनेका प्रयत्न करते हैं, परन्तु जो निरन्तर संवेग भावनाका चितवन करते हैं, वे विघ्नोको, उपसर्गीको, - सहन करते हैं, उपहाससे भयभीत नहीं होते हैं । ज्यों ज्यों लोग उन्हें धर्म च्युत करना चाहते हैं, त्यों त्यों वे ओर भी में दृढ़ होते जाते हैं ।
सोलहकारण भ्रमं ।
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फल इसका यह होता है, कि निंदक लोग पापकर्म. बांधकर दुर्गतिको जाते हैं। पुरुष धर्मध्यानके मोगसे स्वर्गादिक सुखोंका अनुभव कर फिर मनुष्य हो अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस भावनाका चितवन निरंतर करना योग्य है । जैसा कि कहा है
मातन तातन पुत्रकलत्रन, संपति सज्जन ए सब खांदो । मंदिर सुंदर काय सखा सब, को, ये को हम अन्तर मोटी ॥ भाव कुभाव घरी मन भेदत, नाहि संवेग पदारथ छोटो । ज्ञान कहे शिवसाधनको, जैसे शाहको काम करे जु वनटी ॥ ५॥३ इति संवेग भावना |