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सोलहकारण धर्म । रखन. इत्यादि), क्षमा ( अन्य प्राणियोंके द्वारा अपने उपर किये हुए उपासर्गोको सहन करना अर्थात् किन्हीं प्राणियोंपर क्रोध न करना) परोपकारिता, धर्य, पुरुषार्थ इत्यादि । अब यहां प्रश्न यह होता है कि सम्यग्दर्शनको प्रधानपद क्यों दिया जाता है ? तो उत्तर यह है कि स्वपरकल्याणाभिलाषी (मुमुक्ष ) प्राणी कल्याण ( मोक्ष) के सत्य मार्गकी ( सम्पग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी ) खोज व परीक्षा करके उसपर अपना दृढ़ विश्वास जमा लेता है। और फिर यदि वह प्राणी किसी कारणवश उस मार्गसे ध्युत होकर विपर्यय मार्ग पर भी चलता है ( चारित्रभ्रष्ट हो जाता है।) बौर अपना श्रद्धान जैसाका वैसा ही स्थिर रखता है, तो संभव है कि कमो वह फिर सम्यक मार्ग ग्रहण कर सकेगा, मयोंकि यह पारित होते हुए भी अपने विश्वाससे भ्रष्ट वही हुआ है । इसलिए उसे कल्याण मासि भ्रष्ट नहीं कर सकते है। __ जैसे स्वामी समंतभद्राचार्य, स्वामी माघनंदी मुन्यादि चारित्रनष्ट होकर भी दर्शनभ्रष्ट न होनेके कारण पुनः मोक्षमार्गमें स्थित हो गये थे, परन्तु जो पुरुष चारित्रपर कदाचित् दृढ़ हो । भले प्रकार पालता हो ) परन्तु दर्शन ( श्रद्धा ) से च्यूत हो गया है, तो उसका वह ज्ञान और चारित्र सभ्यग्ज्ञान और सम्य चारित्र नहीं कहा जा सकता है। यह । ज्ञान व चारित्र मिथ्याज्ञान व मिथ्या चारित्र ही जानना चाहिये और वह अवश्य छूट जायगा, वह भ्रममें पड़कर भ्रष्ट हो जायगा और प्रधान न होने के कारण फिर मोक्षमार्गमें नहीं लग सकेगा, अर्थात् वह अनंत संसारमें भटकता फिरेगा: