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सोलाहकारब बर्म । करना, सुंदर सुपर ववाभूषण पहिनना, विलासी नरनारियोंकी संगतिमें रहना, कामकथाओंका कहना सुनना, पुष्ट स्वादिष्ट होजा जा, इस्पादि ते दिया जाता है। उन्हें विद्याध्ययन कालपर्यत गुरुके घर ही रहना पड़ता है जिसे गुरुकुलको प्रया कहते हैं। __ यह प्रथा यद्यपि कालके फेरसे अन्यरूपमें बदल गई है, तो भी किसी अंशमें अभी काशी नालंदा आदि स्थानोंमें बराबर प्रचलित है। जहांतक इस प्रथाका प्रचार यथार्थ रीतिसे रहा वहांतक ही इस देश में अकलंक निकलंक जैसे धुरन्धर विद्वान् होते रहे, और धर्मका डंका बजाते रहे हैं, परन्तु जबसे विद्यार्थियोंने इस प्रथाको छोड़ा और उनके मातापिताने अज्ञानवशर्ती होकर उनका पाणिग्रहण अल्प बयमें कराना आरम्भ कर दिया, तभीसे उनके विद्योपार्जन मार्गमें बड़ा भारी रोड़ा (पत्थर) अटक गया-आड़ा आ गया। आजकलके विद्यार्थी मोड़ोसी महिनतसे घबरा जाते हैं। उन्हें फूल ( ताजा ) और कामिनिया आईल, बर्फ, दूध, बादाम, मिश्री, अर्क, गुलाबकेवड़ा, खशकी टट्टो और पंखेका किवाय, मोजा, गुलू बन्ध, स्वेटर, छाता और जूता इत्यादि सामान तो आवश्यक हो गया है। इसके विना तो वे पढ़ ही नहीं सकते हैं।
जब प्राचीन कालके ब्रह्मचारी विद्यार्थी धूप ठंड आदिको कुछ पर्वाह न कर सिंह शावक (बच्चा ) के समान विचरते थे, जिस कार्यको हाथमें लेते उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। इसका कारण उनका ब्रह्मचर्य ही था। आज जो आवश्यकतायें होने लगी हैं, यह सब निर्बलताका कारण है। उनके अल्प वसमें वोर्यका क्षय होना ही कारण है। इससे यह