Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 16
________________ १४ ] सोलहकारण धर्मं । अर्थं जिनदेवकी भी पूजा सेवा करना व्यर्थ है । जिनदेवकी पूजा को इस अभियान करना चाहिये कि यह नीप ( मैं ) जो कर्मवश संसार में जन्ममरणका दुःख पा रहा है, विषयकषायों की तृष्णामें घोर दुःख पा रहा है उससे किसी प्रकार छूटे। सो हे जिनदेव ! आपने इन विषय कषायोंको क्षीणकर कर्मोपर विजय पाई है और जन्ममरणसे रहित हुवे हो, इसलिये हमको अपना अविनाश मोक्षपद देवी ( आपका पद हमें भो मिले विचारनेका अवसर है कि जो देव स्वयम् काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, मान, खेद, चिंता, भय, विस्मय, ग्लानि आदिके वश में हुवे दुःखित हो रहे हैं, वे दूसरोंका दुःख कैसे दूर कर सकते हैं ! दुःख तो दूसरोंका उसीके कारण दूर हो सकता है जिसने प्रथम अपना सब प्रकारका दुःख दूर करके सच्ची स्वाधीनता ( मोक्षपद ) प्राप्त की हो। और यह बात जिनदेव हो में पाई जाती है । इसलिये निरीच्छा होकर जिनदेवको पूजा, स्तवन, गुण, कीर्तन करना चाहिये। यहां इतना और ध्यान रखना चाहिये कि कालदोषसे कितने ही लोगोंने जैनके नामसे अनेक प्रकारके संसारी देवों जैसे यक्ष, दिकपालादि देवोंकी पूजा भी चला दी है और वे उसकी पुष्टिमें भोले लोगोंको अनेकों युक्तिशुन्य प्रभाणों द्वारा बहुका लेते हैं । तथा कितने चोवीस तीर्थंकरोंको परम दिगम्बर वीतराग मुद्राको बिगाडकर, उनकी प्रतिमाओं को मुकुट कुंडल हीरादि आभूषणसे तथा आगो आदिसे अलंकृत करके भो उन्हें वीतरागदेवको मूर्ति बताते हैं । सो परीक्षा करके हो सच्चे १८ दोष रहित देवका आराधन करना चाहिये और इनके सिवाय : अन्य रागी, द्वेषो आदि . कुदेवोंकी पूजादि करना देवमूढ़ता है ।

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