________________
सोलहकारण धर्म ।
बना लिया जाय । इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुष सदव जिनागम में श्रद्धा रखकर : करी है ।
(२) नि:काक्षित-अर्थात् संसारके विषयभोगीको विनाशोक और दुःखोंसे भरे हुए जानकर उन में लवलीन नहीं होना । अर्थात् भोगाकांक्षा रूप निदानादि न करना ।
३. निबिचिकित्सा-साधर्मीजनों व रत्नत्रयके धारी साधुजनों के मलिन शरीरको देखकर घृणा न करके उनके गुणामें अनुराग करना । तथा ग्लानि रहित हो वैयावृत्तादि करना ।
(४) अनुहष्टि -देव अदेव, धर्म अधर्म, सुगुरु कुगुरु, इत्यादिका विचार करके उनमें भेद करना, और देव, धर्म, गुरु, तत्वादिका यथार्थ श्रद्धान करके शेषको मन, बचन, काय व कृत कारित अनुमोदनापूर्वक त्याग करना ।
(५) उपहन-जिन कारणोंसे सस्य धर्मपर झूठे आसेप होते हों व धर्मका हास्य या निंदा होतो हो, उन कारणोंको रोके, दबावे, तथा प्रगटपने अपने गुणों की प्रशंसा और दूसरोंके छते व अनछत गणों की निंदा नहीं करना ।
(६) स्थितिकरण सम्यग्दर्शन व सभ्याचारित्रसे डिगते हुवे जीवाको उपदेशादि द्वारा अथवा अन्य किसी प्रकारसे स्थिर करना ।
(3 वात्सल्य----साधर्मी भाइयोके प्रति तथा जीव मात्रासे भी गाय और उसके बछडेके समान निष्कपट प्रेम रखना, और स्वशक्ति अनुसार उनकी सेवा सुश्रुषा, सहायता व भक्ति आदि करना।
() प्रभावना-सर्वत्र सर्वोपरि सच्चे ( जैन धर्मका .अभावं प्रगट करना ।