Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ सोलहकारण धर्मं । गुरुपूढ़ता आरम्भ और परिग्रहके धारो, लोकमें अपनी प्रतिष्ठा पानेके इच्छुक, यंत्र मंत्र तंत्रोंके द्वारा युवक युवतियोंको फंसाकर द्रव्य कमानेवाले, तथा योगकी ओट में भोग भोगनेवाले, मठाधीश, अखाड़ेवाले महन्त नाना प्रकारके कल्पित भेवधारी गुरुओं ( साधुओं) की सेवा करना सो पाखण्ड ( गुरु मूढ़ता है । कारण जो अपना घर स्त्री पुत्र आदि त्यागकर भी त्यागी नहीं हैं, जो वनमें रहकर भी गृहस्थोसे अधिक आरम्भ परिग्रह रखते हैं, बात बात में श्राप देनेके लिये दुर्वासा ऋषिको होड करते हैं, लोगों को ठगने के लिये पुत्र पुत्रादि देनेके ठेकेदार बनते हैं, किसीकी हार, किसीको जीत कराते है, जो स्त्री पुत्र के मर जानेके कारण वियोगी होकर साधु हुए है। या स्त्री न मिलने के कारण या किसी रूपवान स्त्री हो के लिये साधु हुए, या घन लुट जाने से या धन कमानेके लिये हो साधु हुए हैं, या जो परिश्रम करके व्यापार, मजदूरी आदिके द्वारा द्रव्य न कमाकर कायर हुए, अपने जीवननिर्वाहका यही साधन बना भस्मी लगाकर, भगवे कपडे पहनकर जटा बढाकर या मूडाकर भेषधारी बकुल ध्यानी साघु हो जाते हैं । सो भला जब ये विचारे स्वयम् अपने आत्माके ठग, अपनाही कल्याण करनेमें असमर्थ, अक्षरज्ञान शून्य, अपने मठ या पदकी रक्षार्थ पण्डि तोंको नौकर रखकर उनके द्वारा पूजापाठ कराते और आप केवल मुंह चलाकर आशीर्वाद देनेवाले लोग दूसरोंका क्या भला कर सकते हैं ? सिवाय इसके लिये अपने पूजकों और शिष्योमे दण्डनीति धारणकर टेक्स ( कर ) वसूल करते और खूब मजे उडाते हैं। अपने पांव पुजवाना ही इनका उपदेश है। इसलिये परम दिगंबर मुद्राधारी बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहसे r [ १५

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129