Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ सोलहकारण धर्म । करके आनेसे रोकना । यह भी आस्रव तथा बंघकी तरह दो प्रकारका है। निर्जरा--पूर्व कालके बंध हुए कम परमागुऔका सम्बन्ध क्रमनमसे तपश्चरणादिने द्वारा आत्मासे छुड़ाना । मोक्ष-बंधे हुए सम्पूर्ण देव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्मीका जीवसे सर्वथा सदाके लिने सम्बन्ध छूट गाना । इस प्रकार संक्षेपसे तत्त्वोंका स्वरूप कहकर अब देव, धर्म और गुरुका स्वरूप कहते हैंसत्यार्थ देवका स्वरूप आप्न नाच्छिन्नदोषण मयज्ञ नागाना । भवितव्यं नियागे ना पथा ह्यासता भवेत् ।।५।। भनिगायाजन्मान्तकमयस्मयाः । न रापमा यस्याप्तः म प्रकीत्यते ।। ६ । (रलकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थ –नियमसे जो धोतरागी अर्थात् क्षुधा, वृषा, वुढापा, रोग, जन्म, मरण, भंप, गर्व, राग, द्वाप मोह चिन्ता, रति, अरति, स्वेद, खेद निद्रा, और आश्चर्य, इत्यादि दोषोंसे रहित, सर्वज्ञ अर्थात् अलोक सहित तीनों लोको समस्त पदार्थोंको उनकी त्रिकालवी पर्याों सहित एक ही समयमें जाननेवाला और हितोपदेशी अर्थात् वस्तु स्वरूपका यथार्थ कथन करनेवाला ही आप्त ( देव ) होता है । अन्यथा देवपना नहीं हो सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 129