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स्मरण कला ४५
अगर, तगर, चन्दन, कपूर, जायफल, इलायची, प्याज, लशुन और हीग आदि ।
जिह्वा पर मैल की परतें जम गई हो अथवा जीम फट गई हो तो उसके पास से स्वाद की क्या परीक्षा कराई जा सकती है ? जबकि स्वाद मानसिक सन्तोष का परम कारण है।
स्पर्शनेन्द्रिय पर मल के स्तर चढ गये हों या ' उसके छिद्र भर गये हों तो वह स्पर्श को परीक्षा किस प्रकार करे ? जब कि स्पर्श ज्ञान की आवश्यकता जीवन मे कदम-कदम पर पडती है। इसलिए इन्द्रियों को बराबर स्वच्छ रख कर उनमें उपेक्षा या रोगादिक के द्वारा कोई बिगाड न हो जाये इसका पूरा ध्यान रखना चाहिये । पर साधक का अति प्राथमिक कर्तव्य है ।
अब उसके उपयोग पर विचार करे । स्पर्शनेन्द्रिय मे स्पर्श ग्रहण करने को जो तरतमता का गुण है. उसका बहुत छोटा अंश ही अपने काम में लेते हैं इसलिए कि अपने वह वस्तु शीतल है या उष्ण है, सुहाली है या खरदरी अथवा चिकनी है या रुक्ष है, इतना ही जानकर उसे छोड देते हैं। पर वह वस्तु कितनी शीतल या कितनी उष्ण है, किसके समान शीतल-उष्ण है, कितनी स्निग्ध अथवा रुक्ष है ? उसकी यथार्थ तुलना नही करते. परिणाम स्वरूप अपने स्पर्श के द्वारा जैमी होनी चाहिए, वैसी परीक्षा नहीं कर पाते । अन्धे मनुष्य स्पर्शनेन्द्रिय का विशेष' उपयोग करते है । इस कारण उनकी यह इन्द्रिय कितना ग्रहण कर सकती है.. इसकी कल्पना करो। वे बहुत सी वस्तुओ को तो चखकर ही पहचान लेते हैं तथा उभरे हुए अक्षरो पर हाथ फेरकर उनमे लिखी हुई पुस्तको को बाँच लेते है ।
__ मेरा स्वयं का वैयक्तिक 'अनुभव ऐसा है कि मनुष्य यदि स्पर्शनेन्द्रिय को बराबर बारीकी से काम मे ले तो चाहे जैसी वस्तु को स्पर्श के द्वारा पहचाना जा सकता है। इतना ही नही पर दो समान दीखने वाली वस्तुओ को भी उनके स्पर्श की तरतमता से पृथक्-पृथक् पहचान कर बता देता है । सन् १९४६ मे बडौदा,