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सुरक्षा वही कर सकता है जो सर्वथा सुरक्षित होता है, अपनी रक्षा के लिये किसी सासारिक अथवा देवी सहायता की तनिक भी अपेक्षा रखने वाला न हो।
इस प्रकार की योग्यता वाले श्री अरिहन्त परमात्मा की शरण मे जाने वाले व्यक्ति के मन मे सदा एक ही भावना रहती है कि यह परमात्मा सुकृतो के सागर हैं, अनन्त गुण-गण के महासागर हैं ।
इस प्रकार की भावना साधक को परमात्मा के समस्त सुकृतो की. भूरि-भूरि अनुमोदना एव स्व-दुष्कृतो की तीव्रतर निंदा गर्दा करते रहने की सद्बुद्धि प्रदान करती है । -
(२) 'नाथवान' शब्द सनाथता एव स्वामी-सेवक भाव का द्योतक है । सच्चा 'स्वामी-सेवक भाव' सेवक को सेव्य स्वरूप बनाता ही है ।
जिनकी परम विशुद्ध प्रात्मा पर देश, काल अथवा कर्म किसी का स्वामित्व नहीं है, उन श्री अरिहन्त परमात्मा को स्वामी के रूप मे स्वीकार कर उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने से ही, आत्मा मे देश, काल एव कर्म के त्रिभुज को भेदने का सामर्थ्य प्रकट होता है।
अनेक भक्त-कवियो ने जिनकी 'समरथ साहिब' के रूप मे उपासना की है, उन परमात्मा को स्वामी बनाना ही देव-दुर्लभ मानव भव मे करने योग्य श्रेष्ठ सुकृत है।
(३) 'मैं उनकी स्पृहा, रटन करता हूँ', यह वाक्य परमात्मा के दर्शन । एव मिलन की तीव्र अभिलाषा का द्योतक है।
यह अभिलाषा-कामना किसी लौकिक पदार्थ की कामना नही है, परन्तु समस्त कामनामो से सर्वथा मुक्त परमात्मा के दर्शन एव मिलन की कामना स्वस्प होकर सब तरह से स्व-पर कल्याणकारी है।
जो व्यक्ति परमात्मा का स्मरण, मनन, भजन, ध्यान करता है वह सर्वथा कृतकृत्यता का अनुभव करता है ।
हमारे जीवन की केन्द्रीय अभिलाषा क्या है ? परमात्मा को प्राप्त . करने की है अथवा जन्म-मरणकारी सामग्री प्राप्त करने की है ?
मिले मन भीतर भगवान