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ओर दृष्टि कौन डाले ? गगा-जल मे नित्य स्नान करने वाला व्यक्ति गदे, .. दूषित जल से परिपूर्ण खड्डे मे स्नान करने के लिये कैसे उत्सुक हो ? जिस व्यक्ति का मन मालती-पुष्प की मधुर सुगन्ध से प्रफुल्लित हो गया है वह पाक के पुष्प को सूघने की अभिलापा क्यो करेगा ? उस प्रकार से अलौकिक गुण-निधान तुल्य आपको पाकर फिर विषय-कषायाधीन देवो पर मन कैसे जायेगा ?
__ हे नाथ ! आपने अनेक भक्तो के हृदय आकर्षित किये है, लुभाये हैं, आप सबकी सेवा-भक्ति स्वीकार करके सबको आश्वासन देते है, परन्तु वास्तव मे तो आप सम्पूर्णत समर्पित किसी एक भक्त के साथ तादात्म्य हो जाते हैं
और मेरे समान गुणहीन भक्त की आप उपेक्षा करते हैं, यह आपके समान निरागी प्रभु के लिये उचित नही कहा जा सकता।
निगगी तो गुणहीन एव गुणवान, पूजक अथवा निन्दक सबके लिये समदृष्टि होते हैं । सूर्य-चद्र अपना प्रकाश प्रसारित करते समय कदापि भेदभाव नही रखते, उसी प्रकार से आपको भी यह सद्गुणी है और यह गुणहीन है ऐसा भेद-भाव रखना उचित नही है । एक का श्रादर और एक का अनादर करना भी आपके समान विरागी के लिये शोभास्पद नही है । आपके लिये तो बांयी और दाहिनी आँख की तरह कोई भी कम अथवा अधिक प्रेमपात्र नही होना चाहिये।
हे नाथ । माता को अपने मूर्ख एव समझदार दोनो वालको के प्रति समान वात्सल्य होता है तो विश्व-माता स्वरूप आप इस बालक का तिरस्कार क्यो करते हैं, प्रभु
इस प्रकार भक्त के जीवन मे भगवान के प्रति श्रद्धा अधिकाधिक , सुदृढ होती जाती है । जव यह श्रद्धा और भक्ति पराकाष्ठा पर पहुँचती है तब भक्त ससार मे रहने पर भी उसकी वृत्ति एव प्रवृत्ति ससार से परे होती जाती है, जल-कमलवत् निर्लेप होती जाती है, रागादि की वृत्तियें निष्प्राण होती जाती है। जिस प्रकार लोह-कण चुम्बक की ओर आकर्षित होता है उस प्रकार से उसकी समग्रता भगवान की ओर आकृष्ट होती है, भगवद्-भाव की ओर खिंचती है।
मिले मन भीतर भगवान