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तथा चित्त की अकेली स्थिरता से भी आत्म-दर्शन नही हो सकता क्योकि ऐसी स्थिरता अपना भक्ष्य (शिकार) प्राप्त करने के लिये एकाग्र होने वाले बुगलो, विलावो आदि मे कहाँ नही होती ?
अत' आत्म दर्शन की प्राप्ति (आत्मानुभूति) तो चित्त की निर्मलता युक्त स्थिरता एव तन्मयता द्वारा ही हो सकती है।
उम प्रकार की चित्त की निर्मलता परमात्मा, सद्गुरु अथवा उनके द्वारा प्रदर्शित अहिंसा आदि व्रतो की उपासना के द्वारा ही हो सकती है, परन्तु केवल वाह्य प्रयोगो से नही हो सकती ।
__ मलिन दर्पण मे पदार्थ का प्रतिविम्व प्राप्त करने की क्षमता नही होती उनी प्रकार से राग-द्वेष-युक्त मलिन मन को प्रात्म-सवेदन का स्पर्श नहीं होता।
चित्त को विशुद्ध करके आत्मानुभूति करने के लिये 'परमात्म-भक्ति' प्रधान साधन है।
परमात्म-भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए साधक को परमात्म-दर्शन अवश्य होता है।
परमार्थ से परमात्मा की दर्शन-पूजा स्व-प्रात्मा की दर्शन-पूजा है ।
नमस्त वर्म रहित शुद्ध प्रात्मा परमात्मा है, कर्म-ग्रस्त अात्मा जीवात्मा है।
जीवात्मा परमात्मा तब ही बन सकती है, जब वह अनन्य भाव से परमात्मा की शरण अगीकार करती है, परमात्मा के पालम्बन का विविध से बीगर करती है।
परमात्म-नत्व आत्म-बाह्य तत्त्व नहीं है, परन्तु श्रात्म-तत्त्व का ही परम विशुद्ध स्वरप है। उमा प्राटीकरण पूर्ण विशुद्ध परमात्माकी उत्कृष्ट भक्ति के द्वारा होता है।
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मिले मन भीतर भगवान