Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 283
________________ मरहन्त = अष्ट महा प्रातिहार्य रूप पूजा के सर्वथा योग्य, अर्थात् पात्रता की __ पराकाष्ठा को पहुँचे हुए, त्रिभुवन द्वारा पूज्य । NU अरुहन्त = कर्म रूपी बीज जलने से जिनकी भव-परम्परा मन्ट हो गई हैं | hmr; केवली = केवल्य-लक्ष्मी के धारक । चिदानदधन = ज्ञान एव प्रानन्द के घन स्वरूप । भगवान् = अनन्त ज्ञान, ऐश्वर्य, सामर्थ्य आदि गुणो से युक्त । विधि = मोक्ष मार्ग का विधान करने वाले । विरचि = ब्रह्म-पर-ब्रह्म को धारण करने वाले। विश्वम्भर = केवली समुद्घात के समय स्वात्म प्रदेशो से विश्व को परिपूर्ण करने वाले, विश्व-व्यापक अथवा सकल ज्ञेय पदार्थों पर प्रकाश डाल कर ज्ञान-गुण से विश्व को भरने वाले। प्रद्य-हर = पाप नष्ट करने वाले । अद्य-मोचन = पाप से मुक्त करने वाले । वीतराग = राग-रहित । अनन्तगुणी = अनन्त ज्ञान आदि गुणो के धारक । सम्यक्-श्रद्ध य = सच्चे रूप मे श्रद्धा करने योग्य । सम्यग्-ध्येय = सच्चे रूप मे ध्यान करने योग्य । सम्यक्-शरण्य = सच्चे रूप मे शरण स्वीकार करने योग्य । -: अचिन्त्य-चिन्तामणि = चिन्तामणि सोचे हुए पदार्थ प्रदान करती है जबकि परमात्मा नही सोचे हुए पदार्थ भी प्रदान करते हैं। ' अकाम कामधेनु = कामधेनु वाछित पदार्थ देती है, जबकि परमात्मा नही चाहै हुए पदार्थों को भी देते हैं। असकल्पित-कल्पद्र म = कल्प-वृक्ष सकल्प के अनुसार वस्तु देता है, जबकि परमात्मा जिनका सकल्प भी न किया हो ऐसे स्वर्ग, अपवर्ग (मोक्ष) के सुख प्रदान करने वाले हैं । मिले मन भीतर भगवान ११३

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