Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 288
________________ आलम्बन द्वारा अपने समस्त पापो का क्षय करके भाव अरिहन्त रूप स्व त्म स्वरूप के साक्षात् दर्शन कर सकता है, क्योकि अरिहन्त' शब्द श्री अरिहन्त परमात्मा का वाचक होने से कथ चित् अरिहन्त स्वरूप है । इसलिये 'नमो अरिहन्ताण एवं 'अह' आदि महामन्त्र के ध्यान में तन्मय होने से श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ तन्मयता सिद्ध होती है और वह उनके साक्षात् दर्शन के समान है । इसीलिये श्री अरिहन्त परमात्मा के ध्यान मे तन्मय बनी साधक आत्मा भी पागम से 'भाव अरिहन्त' कहलाती है। मन अपना मिटकर परमात्मा का हो जाये उस घटना को इस विश्व की उत्कृष्ट मगलकारी घटना कही है । इसीलिये परमात्मा के नाम स्मरण को जीवन बनाने मे विश्वात्मक जीवन का श्रेष्ठ सम्मान है। मन्त्र की आराधना द्वारा परमानन्द का अनुभव नाम अरिहन्त अक्षरात्मक है। अक्षर मन्त्र-स्वरूप है। चार अक्षर के इस शब्द के जाप मे से उत्पन्न उत्कृष्ट प्रकार के संगीत से मन सहित समस्त प्राणो को अपूर्व पवित्रता, अपूर्व प्रानन्द स्पर्श करता है । उसमे से श्रमश. रस-समाधि लगती है, सरस आत्मा की स्पष्ट अनुभूति होती है । मन्त्राक्षर की प्रत्येक ध्वनि अन्त प्राणो पर उपघात करती-करती सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होकर अनाहत कक्षा का वरण करती है । तब साधक-जापक और साध्य-जाप्य एकरूप हो जाते हैं और यही उस मन्त्र जाप का यथार्थ फल है । अनेक जापो के पश्चात् अजपा-जाप की कक्षा स्वाभाविक बनती है । तत्पश्चात् अनाहत नाद के स्पर्श का प्रारम्भ होता है । ११८ मिले मन भीतर भगवान

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