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"अहं" शब्द मे वर्णो की रचना इस प्रकार है । “प्र-र-ह-कलाविन्दु ।' उसकी समस्त शास्त्रो मे तथा समस्त लोक मे व्यापकता है, वह इस प्रकार है
"अह" मे 'अ' से 'ह' तक की सिद्ध मातृका (अनादि सिद्ध बारहाक्षरी) निहित है । उनमे से एक-एक अक्षर भी तत्त्व स्वरूप है । फिर भी 'अ-र-ह' ये तीन वर्ण अत्यन्त विशिष्ट हैं।
'अ' तत्त्व की विशिष्टता.
(१) 'अकार' समस्त जीवो को अभय प्रदान करने वाला है, क्योकि 'अकार' शुद्ध प्रात्म-तत्त्व का वाचक है।
___जिस आत्मा को शुद्ध प्रात्म-तत्त्व की प्रतीति होती है, वह स्त्र एव पर समस्त जीवो को वास्तविक रीति से अभय प्रदान करता है।
'अ' का उपघात, 'अ' के जाप की अश्राव्य ध्वनि-तरग आत्मा के अक्षर प्रदेश को खोलने का कार्य करती है।
'अ' से अजर, अमर, अक्षर, अव्यय, अविनाशी, अखण्ड, अनादि, अनुपम, अलौकिक आत्म-तत्त्व का बोध होता है।
जिसे शुद्ध प्रात्म-तत्त्व का वोध होता है वह जीव अल्प काल मे ही समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर परम पद प्राप्त करता है और अपनी ओर से समस्त जीवो को सदा के लिये अभय दान देता है।
(२) 'प्रकार' समस्त जीवो के कण्ठ-स्थान के आश्रित रहने वाला प्रथम है।
तत्त्व
(३) वह 'प्रकारत्व' सर्व स्वरूप, सर्वगत, सर्व व्यापी, सनातन और सर्व जीवाश्रित है, जिससे उसका चिन्तन भी पाप-नाशक बनता है, क्योकि वह समस्त वर्णों और स्वरो मे अग्रगण्य है और 'क' कारादि समस्त व्यजनो के उच्चारण मे उसका प्रयोग होता है। अत वह सब प्रकार के मत्र-तत्रादि
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मिले मन भीतर भगवान