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के अलौकिक सुख का जो अनुपम प्रास्वादन कर रहा हो उसकी वह विश्व किसी भी वस्तु के साथ तुलना नहीं कर सकता, क्योकि विश्व की किसी भी आत्म-वस्तु के सुख का एक अश भी नही होता।
- यह अनुभव-सुख केवल अनुभव-योगी ही प्राप्त कर सकता है । शब्दो के द्वारा इस सुख का शत-शत जिह्वानो से श्रुत-देवता भी यथार्थ वर्णन नही कर सकते।
साधक जब इस अनुभव-स्तर तक पहुँचता है तब उसे स्वत. ही सब समझ मे आ जाता है।
समता का अनुपम सुख
समता प्रात्मा की सम्पत्ति है । समता आत्मा का धन है।
प्रात्मा मे मग्न रहने वाला साधक इस धन का स्वामी होकर उसके अनुभव का अलौकिक आनन्द मना सकता है।
गुलाब के इत्र से पूर्ण होज मे निश-दिन स्नान करने वाले व्यक्ति को भी इस आनन्द के एक अश का भी कदापि अनुभव नही होता ।
समता-सुख के एक अश का यथार्थ वर्णन सैकडो ग्रन्थो मे समाविष्ट हो जाये उतना लेखन करने पर भी नही हो सकता।
उत्तम शास्त्र-ग्रन्थ 'समता' का निरूपण करते हैं, समता के लाभ का वर्णन करते हैं, समता से भ्रष्ट होने पर आत्मा की होने वाली दुर्दशा को सही रूप से प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वे समता के अनुभव-गत सुख का वर्णन नही कर सकते । उसका तो अनुभव ही करना पडता है।
शर्करा के स्वाद का वर्णन करने वाले सैकडो ग्रन्थो का पठन करने वाले व्यक्ति को उक्त वर्णन पढने से उसकी मधुरता का अनुभव नही होता जो शर्करा मे होती है ।उसको मधुरता का अनुभव तो तब ही होता है जब वह उसे हाथ मे लेकर मह मे डालता है और जीभ से चखता है।
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मिले मन भीतर भगवान