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जीवन मे सर्वोच्च स्थान प्रदान करने वाले श्री अरिहन्त परमात्मा की सातो धातु चरम भव मे उस परम जीव-स्नेह के द्वारा ऐसी हो जाती है कि उनकी दिव्य देह में प्रवाहित रक्त लाल न रह कर दूध तुल्य श्वेत हो जाता है।
रक्त कभी दूध जैसा श्वेत हो सकता है ? अवश्य हो सकता है।
तनिक सोचो, अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य भावना के प्रभाव से माता के स्तन मे प्रवाहित लाल रंग का रक्त दूध जैसा श्वेत हो जाता है
और वह दूध के ही गुण-धर्म धारण करता है, तो समस्त प्राणी मात्र पर विमल वात्सल्य प्रवाहित करने वाली जगज्जननी भाव-माता-परमात्मा श्री अरिहन्तदेव के सम्पूर्ण शरीर का रक्त दूध के समान हो तो आश्चर्य ही क्या है ?
आश्चर्य तो यह है कि मेरा-तेरा, छोटा-बडा अथवा ऊंच-नीच आदि के भेद की वज्र के समान दीवारो को धाराशायी करके समस्त जीवो पर समान वात्सल्य-भाव रखना। जिस विमल वात्सल्य के स्रोत मे स्नान करके पतित भी पावन हो जाता है, पापी भी पापहीन हो जाता है, कर्म-श्रखला से युक्त व्यक्ति भी कर्म-श्रखला से मुक्त हो जाता है, सदेही विदेही हो जाता है और जन्म-मरण की परम्परागो से जकडा हुआ प्राणी भी जन्म-मरण पर विजयी हो जाता है। यह क्या श्री अरिहन्त परमात्मा का कम उपकार है ? उनका असीम उपकार है, सब उपकारियो को नीचा दिखाने वाला उपकार है और जन्म-दातृ माता के उपकार को भी निस्तेज करने वाला प्रसाधारण, अनन्य, अद्वितीय उपकार है।
शास्त्र फरमाते है कि परम उपकारी श्री अरिहन्त परमात्मा के दिव्य देह की रचना इस विश्व मे स्थित उत्कृष्ट शान्त भाव से सुवासित परमाणुप्रो के द्वारा होती है।
ये परमाणु केवल उनकी ओर ही आकृष्ट होने का कारण उनका उत्कृष्ट पुण्य है। वे उत्कृष्ट भाव-दया के कारण इतने उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करते हैं।
मिले मन भीतर भगवान
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