Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 278
________________ जिन-जापक, तीर्थ-तारक, बुद्ध-बोधक, मुक्त-मोचक, त्रिकाल विद्, पारगत, तीर्थकर, अरिहन्त, अरहन्त, अरूहन्त, केवली, चिदानन्दधन, भगवान्, विधि, विरचि, विश्वम्भर, अघहर, अघमोचन, वीतराग, काल-पाश नाशी, सत्त्व-रजस्तमो, गुणातीत, अनन्त गुणी, सम्यक्-श्रद्धय, सम्यग्-ध्येय, सम्यग्शरण्य, अचिन्त्य-चिन्तामणि, अकाम-कामधेनु और असकल्पित कल्पद्रुम आदि विविध नामो से परमात्मा श्री अरिहन्त देव का परिचय मिलता है। विविध नामो के अर्थ परमात्मा = श्रेष्ठतम है जिनकी आत्मा वे । परमेश्वर = परम ऐश्वर्यवान् । परम परमेष्ठि = सर्वोच्च स्थान पर स्थित परमेष्ठि भगवतो मे श्रेष्ठ । परम योगी = योग-साधक योगी पुरुषो मे श्रेष्ठ । परम ज्योति स्वरूप = श्रेष्ठ केवल-ज्ञान की ज्योति वाले । परम देव = परम कोटि के देवत्व के धारक श्रेष्ठ देव । परम पुरुष = त्रिलोको के समस्त पुरुषो मे श्रेष्ठ । परम पदार्थ = श्रेष्ठतम पदार्थ । प्रधान = मुख्य । प्रमाण = प्रमाण भूत। परमान = उत्कृष्ट सम्मान के पात्र । पुरुषोत्तम = समस्त पुरुषो मे उत्तम । पुरुषसिंह = परिपूर्ण सिंह की वृत्ति वाले, अपने बल से ही कर्म रूपी शत्रुओ के सहारक । पुरुषवर पुण्डरिक = पुरुपो मे श्रेष्ठ कमल के समान । जिस प्रकार कमल कीचड और जल से उत्पन्न होने पर भी कीचड और जल से अलिप्त रहता है, उसी प्रकार से कर्म रूपी कीचड और भोग रूपी जल से उनकी वृद्धि होने पर भी वे उनसे अलिप्त रहते हैं। १०८ मिले मन भीतर भगर्वोन

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