Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 269
________________ इस प्रकार श्री अरिहन्त परमात्मा जीवो को परमात्म-शासन के रसिक बनाने के अपने सकल्प को साकार करते है, परन्तु इतने से ही न रुककर । वे परम दयालु अष्ट महा प्रातिहार्य युक्त समवसरण में विराज कर पैतीस गुणो से युक्त वाणी से बारह पर्पदाग्रो के समक्ष अमृतमयी धर्मदेशना देते हैं, जिसके पान से, श्रवण से लघुकर्मी प्रात्माप्रो के हृदय मे अपूर्व आत्म-स्नेह उत्पन्न होता है, भेद के बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, प्रज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है और विशुद्ध प्रात्म-रति रूपी सम्यक्त्व का स्पर्श होता है। पाषाण-हृदयी मनुष्य को भी पानी-पानी कर डालने की अमोघ शक्तियुक्त यह वाणी प्राणियो को अपनी माता के वात्सल्य से भी अधिक मोहक एव मधुर लगती है । अर्थात् शर्करा की मधुरता की तरह इस वाणी रूपी सुधा का पान करने वाले मनुष्यो को अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र-वीर्य एव तपोमय आत्मा मधुर लगने लगती है, ससार कटु लगने लगता है। अत उनमे से अनेक व्यक्तियो का देहा-ध्यास छूट जाता है, शुद्ध प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति की प्यास बढ जाती है, अत: वे शुद्ध स्वरूप की साधना मे सक्रिय हो जाते हैं, कुछ मनुष्य देश-विरतिधर हो जाते हैं, कुछ सर्व विरतिधर हो जाते हैं और कुछ मनुष्य शुक्ल ध्यान की धारा पर आरूढ होकर, क्षपक श्रेणी माड कर घाती कर्मों से भयानक संघर्ष करके, उन्हें परास्त करके सर्वज्ञसर्वदर्शी हो जाते हैं और शेष अघाती कर्मों का भी क्षय करके शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण और हो मुक्त जाते हैं। इस प्रकार सर्व-प्राणी-हित-चिन्तक श्री अरिहन्त परमात्मा आत्म-स्वर्ण को शुद्ध करके उसमे निहित परम विशुद्ध परमात्म-स्वरूप को प्रकट करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया का ज्ञान सिखाते हैं, वे जीव को शिव बनाने की सर्वोत्तम कला का दान करते हैं और सत, महन्त एव भगवत बनने की भव्यातिभव्य साधना प्रदर्शित करके विश्व पर असीम उपकार करते हैं। जन्म से ही चार अतिशय युक्त श्री अरिहन्त परमात्मा की वाणी वारह पर्षदामो मे बिराजमान देव, दानव, मानव, और तिर्यंच अपनी-अपनी भाषा मे सुनकर अनहद रोमाचित हो उठते हैं । झूले मे रोते बालक को उसकी माता मिले मन भीतर भगवान

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293