Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 268
________________ शस्त्र को तीक्ष्ण बनाकर धैर्य रूपी ढाल धारण करके कर्म शत्रुओ के विरुद्ध प्रकट युद्ध छेडना ही रहा।" ____सग्राम-भूमि मे शत्रु से संघर्ष करते सैनिक मे जो शूरवीरता होती है उससे भी कही अधिक शूरवीरता कर्म रूपी शत्रुनो को पराजित करने के लिये चाहिए। ऐसी शूरता परम वीर्यवान परमात्मा की भक्ति एव सर्व जीवो की मैत्री मे से उत्पन्न होती है, परन्तु वह शूरता विषय-कपाय के सेवन से प्रकट नही होती। श्री तीर्थकर परमात्मा की अत्मा के मूक सन्देश का सार यह है कि "जड के चेतन पर स्वामित्व का नाश करने के लिए नख शिख चेतनमय वनो, प्रात्म-उपयोगी बनो और उसके लिए आवश्यक तप, जप, समय, स्वाध्याय और ध्यान-मग्न बनो।" विश्वोपकारी इस मूक सन्देश का वे प्रथम स्वय पालन करके सर्वोत्कृष्ट साधना का आदर्श सबके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। चार घाती कर्मों का स्वात्म बल से क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करने पर श्री अरिहन्त परमात्मा विश्व के प्राणियो को तारणहार तीर्थ की स्थापना करते हैं, अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक एव श्राविका स्वरूप चतुर्विध श्री संघ की विधिवत् स्थापना करते हैं । तीर्थ की स्थापना करने से पूर्व वे परम दयालु परमात्मा नमो तित्थस्स' पूर्वक समवसरण मे बिराजमान होते हैं । यह तथ्य इस सत्य का द्योतक है कि तीर्थ के आलम्बन के बिना कोई भी व्यक्ति ससार-सागर को पार नहीं कर सकता । अत. स्वय श्री तीर्थंकर परमात्मा भी तारणहार तीर्थ के उपकार को नमस्कार करते हैं। तारणहार तीर्थ की स्थापना के पश्चात श्री अरिहन्त परमात्मा त्रिपदी (उवन्नेइवा, विगमेइवा, धुवेइवा) कहते है, जिसे बीज-बुद्धि के निधान गणधर भगवत द्वादशागी रूप सूत्रो मे गूथते हैं, जिसमे विश्व के समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन होता है, जिससे भव्य आत्मा भवसागर पार करके अजर-अमर पद को प्राप्त करती है। १८ मिले मन भीतर भगवान

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