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यह आनन्द प्रात्मा के घर का होने से प्रात्मा के समान अमर है, शाश्वत है, अछेद्य है, अखण्ड है। क्रूर कर्म अथवा कराल काल भी उसका , कुछ भी विगाड नही सकता।
अन्तरात्मा में परमात्म-दर्शन
जिस परमात्मा के दर्शन अन्तरात्मा मे ही हो सकते थे, उनके लिये अनन्त काल तक बाहर ही भटकता रहा जिसका उसे अपार खेद होता है।
जो वस्तु जहाँ न हो, वहाँ उसे चाहे जितनी खोजें तो वह कहाँ से मिलेगी ? नही मिलेगी।
परन्तु सदृगुरु जब ज्ञानाजन से साधक-भक्त की दृष्टि खोलते हैं तब वह आत्म-सुख को बाहर खोजना छोडकर अन्तर्मुखी होता है; अन्तरात्मा मे परमात्म-दर्शन प्राप्त करके अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करता है और स्वय परमात्मा के गुण-निधान का स्वामी बना हो ऐसा उसे प्रतीत होता है, अर्थात् परमात्मा में निहित अनन्त गुण स्वय के प्रत्येक प्रात्म-प्रदेश मे होने का सामान्य अनुभव भी उसे पहली बार होता है ।
प्रात्मानुभव का पराक्रम और सुख
इस प्रकार की परमात्म-गुण की अनुभव रूपी चन्द्रहास खड्ग कदापि म्यान मे नही रह सकती । वह तो मोह रूपी महान शत्रु का नाश करके हो रहती है। महान् पराक्रम के प्रेरक इस अनुभव के सुख का वर्णन करना असम्भव है, क्योकि वर्णन करने का साधन जिह्वा वहां तक पहुँच ही नही सकती।
जिस प्रकार वन मे रहने वाला कोई मनुष्य, राजा का अतिथि बने और विभिन्न पकवानो से युक्त भोजन आदि का आनन्द उठाये, परन्तु जब वह पुनः अपने निवास पर लौटे तब वह बन के सुखो से उन सुखो की तुलना नही कर सकता, क्योकि वन की किसी भी वस्तु मे उसे उस प्रकार के सुख का मश मात्र भी प्रतीत नही होता । उसी प्रकार से अनुभव योगी स्वभाव रमणता
मिले मन भीतर "भगवान