Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 258
________________ तो प्रीति-पात्र कोन ' सर्व गुण-सम्पन्न परमात्मा, सर्व दोप रहित परमात्मा । परमात्मा की प्रीति मे से ही आत्मा को परमात्मा बनाने वाला तेज प्रकट होता है, बल प्रकट होता है, वीर्य का स्फुरण होता है। आत्म-दर्शन करने वाले साधक की वृत्ति एवं प्रवृत्ति जिस व्यक्ति को एक बार आत्म-दर्शन हो गया हो, उसकी वृत्ति एव प्रवृत्ति पर प्रात्म-रति की अमिट छाप होती है। उसकी वृत्ति एव प्रवृत्ति मे तुच्छ स्वार्थ एव राग-द्वेष रूपी ससार के समक्ष कदापि नतमस्तक नही होने का सत्त्व होता है। वह पाँच इन्द्रियो के विषयो मे फंसता नही, चार कपायो के चक्कर मे उलझता नहीं। भव-निर्वेद सवेग (मोक्ष-प्राप्ति की तीव्र उत्कठा) उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य होता है । वह स्वात्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट करने के प्रवल पुरुषार्थ मे सदा रत रहता है और प्राप्त मानव-जीवन के प्रत्येक क्षण का आत्म-साधना मे सदुपयोग करने के लिये वह कटिबद्ध होता है। आत्म-दर्शन के पश्चात् रुचि, प्रीति, मति, ध्यान और उपयोग आत्मा मे रहते है। “सम्यग् दृष्टि प्रात्मा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर थी अलगो रहे, जिम धाव खेलावत बाल ॥" इस उक्ति को सार्थक करने का सत्य सम्यग्-दृष्टि आत्मा मे होता है। अत ऐसी सम्यग्-दृष्टि वाली आत्मा मोक्ष मे जाने से पूर्व कदाचित् जन्म-मरण के फन्दे से उलझ जाये, दैवी एव मानुपी सुखो के शिखर पर आरूढ हो अथवा दु ख के दावानल मे फँस जाये तो भी वह कदापि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का मृजन नहीं करती। अरे । एक आयुष्य कर्म छोडकर शेष सात कर्मों की स्थिति अन्त कोडा-कोडी से अधिक बांधता नही है । अधिक से अधिक अपार्ध पुद्गल-परावर्त्त काल मे तो वह शाश्वत सुख का भोक्ता अवश्य बनता है। यह है परमात्य-दर्शन और उसके द्वारा होने वाले प्रात्म-दर्शन का फल । मन मिले भीतर भगवान्

Loading...

Page Navigation
1 ... 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293