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एकान्त हितकर है, क्योकि परमात्मा की प्रीति की डोर से बँधा हुआ साधक तुच्छ स्वार्थ एव तज्जनित समस्त बन्धनो का त्यागी सिद्ध होता है ।
___ यह प्रीति छुपी नहीं रहती, चुप नहीं बैठ पाती, परन्तु परमात्मा के गुण गा-गाकर हर्षित होती है, अर्थात् इस प्रीति वाला साधक परमात्मा के, गुणो का चिन्तन करता हुआ भक्ति-अनुष्ठानो मे प्रविष्ट होता है, स्तोत्र द्वारा अन्तःकरण को परमात्मा के गुणो से भावपूर्ण करके जाप रूपी वचन-अनुष्ठान मे प्रविष्ट होता है और जाप द्वारा चित्त की निर्मलता एव स्थिरता होने से असग दशा में प्रविष्ट होकर लय-अबस्था-रूप (प्रात्म-स्वरूप-लीनता रूप) फल का आस्वादन करता है।
इस प्रकार पूजा मे प्रीति-अनुष्ठान की, स्तोत्र मे भक्ति-अनुष्ठान की, जाप मे वचन-अनुष्ठान की और ध्यान मे प्रसग-अनुष्ठान की प्रधानता होती है।
पूजा प्रीति-अनुष्ठान को पुष्ट करती है, स्तोत्र भक्ति-अनुष्ठान को पुष्ट करता है; जाप वचन-अनुष्ठान को पुष्ट करता है और ध्यान असग-अनुष्ठान को पुष्ट करता है तथा असग-अनुष्ठान द्वारा परमात्म-दर्शन रूपी अलौकिक फल की प्राप्ति होती है।
जिस प्रकार पूजा की अपेक्षा स्तोत्र, स्तोत्र की अपेक्षा जाप, जाप की अपेक्षा ध्यान और ध्यान की अपेक्षा लय का फल करोड गुना है, उसी प्रकार से प्रीति की अपेक्षा भक्ति का, भक्ति की अपेक्षा वचन का और वचन की अपेक्षा असग-अनुष्ठान का फल करोड गुना है तथा असग-अनुष्ठान द्वारा प्राप्त होने वाले परमात्म-दर्शन का फल अनन्त गुना है क्योकि उससे आत्म-दर्शन होता है और मा.त्म-दर्शन परमानन्द प्रदान करता है।
... तात्पर्य यह है कि परमानन्द की नीव प्रीति है, प्रासाद भक्ति है, शिखर जाप है और कलश ध्यान है ।
यदि प्रीति नही तो फिर भक्ति कैसी ? यदि भक्ति नहीं तो जाप कैसा ? यदि जाप नही तो ध्यान कैसा ? फिर लय तो सभव ही नहीं।
मन मिले भीतर भगवान्
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