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उत्कृष्ट प्रकार के परमार्थ का स्वरूप
माता को अपनी सन्तान का दुख देखकर जो व्यथा होती है चिन्ता होती है उससे अनन्त गुनी व्यथा एव चिन्ता श्री तीर्थंकर परमात्मा को तीन लोको के प्राणियो की वेदना देखकर होती है। इससे उनका हृदय दया के सागर का स्वरूप धारण करता है और वे वेदना की उत्पत्ति के कारणो की खोज मे अन्तर तल मे गहरी डुबकी लगाते हैं। अपनी समग्रता विलो कर वे इस वेदना के कारण रूप मक्खन को प्राप्त करते हैं।
यह मक्खन अर्थात् तीनो लोको के प्राणियो के सब प्रकार के दुःखो का मूल कारण कर्म होना ही सत्य ।
इस सत्य की प्राप्ति के पश्चात् वे करुणा-सागर घडी भर के लिये भी शान्त नही बैठते । वे उन कर्मों का समूल उच्छेद करने की उत्कृष्ट विचारधारा मे सतत अग्रसर होते है।
तीनो लोको के समस्त प्राणियो को स्व-दया के विषयभूत बनाने वाले श्री तीर्थकर परमात्मा की आत्मा को अब रह-रहकर यही प्रश्न स्पर्श करता है कि तीन लोको के समस्त प्राणियो को त्राहि-त्राहि कराने वाले इन कर्मों के सिकजे मे से किस प्रकार छुडाया जाये ?
इस गम्भीर प्रश्न को वे परम दयालु अपना प्राण-प्रश्न बना कर अपने समस्त प्राणो को उसमे रमाते है, अपने रक्त के प्रत्येक बिन्दु को उससे रगत्ते हैं जिससे श्री तीर्थकर परमात्मा के रूप मे अपने भव से पूर्व तीसरे भव मे उक्त गम्भीर प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो जाता है कि यदि विश्व के समस्त प्राणी श्री जिन शाहत के रसिक बनें और श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा निर्दिष्ट राह पर चलें तो वे कर्म के ससस्त बन्धनो से मुक्त होकर आधि, व्याधि एव उपाधि के समस्त दु.खो से भी अवश्य मुक्त हो जागेयें ।
हृदय रोमाचकारी इस लत्तर के पश्चात् उन परम दयालु प्रभु के हृदय में यह प्रश्न उठता है कि समस्त जीवो को परमात्म-शासन-रसिक किस प्रकार बनाया जाये ?
मिले मन भीतर भगवान