Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 256
________________ , ही श्री जिनराज की भाव-पूजा के अग-भूत स्तोत्र, स्तवन आदि करने की हमारी ___ इच्छा होती है । परमात्मा का गुण गान करते-करते उनके उन गुणो के असीम उपकारों का हमे भान होता है। ऐसा भान होने के पश्चात् हमारे मन में परमात्मा का मान तुरन्त बढ जाता है, परमात्मा हमारे हृदय मे वस जाता है । अतः परमात्मा के नाम का जाप हमे अपने नाम से भी अधिक प्रिय लगता है। ज्यो-ज्यो जाप गहन, व्यापक एव ताल-बद्ध होता जाता है, त्यो त्यो उसमे से राग-द्वेष विनाशक ताप उत्पन्न होता जाता है। तत्पश्चात् शब्द-जाप, नाम-जप घटने लगता है और ध्यान की धारा प्रारम्भ होती है । इस प्रकार का ध्यान लाने से नहीं आता, परन्तु इस प्रकार की पूजाभक्ति की क्रमिक प्रक्रिया द्वारा वह साकार होता है । और परमात्म-स्वरूप के ध्यानाभ्यास द्वारा आत्म-स्वरूप मे तल्लीनता आती है अर्थात् 'अह' का विलय हो जाता है । इस प्रकार पूर्व-पूर्व के पूजा-अनुष्ठान उत्तरोत्तर के अनुष्ठानो मे प्राणपूरक होते हैं और साधक उसी क्रम से आगे बढ सकता है, प्रगति कर सकता है। सर्वप्रथम पुद्गल के आकर्षण से चकाचौंध चित्त को पुन लौटाने और पौद्गलिक आसक्ति तोडने के लिये श्रेष्ठतम द्रव्यो द्वारा परमात्मा की पूजा की जाती है। अपने प्रिय को स्वय को प्रिय से प्रिय वस्तु प्रेम से अर्पण करना मानवस्वभाव है। ऐसा करने से दोनो के मध्य का प्यार अत्यन्त सुदढ होता है, परन्तु यह लौकिक प्रेम एकान्त हितकर नही है। परमात्मा के प्रति प्रेम ८६ मन मिले भीतर भगवान्

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