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लोको के किसी भी पदार्थ मे उस प्रकार का आनन्द प्रदान करने की शक्ति नही होती।
प्रत्येक आत्मा सत्ता से सिद्ध परमात्मा के समान है। ज्योति स्वरूप 'सिद्ध परमात्मा का ध्यान ही वास्तविक परमात्म-दर्शन है।
- किसी भी जीव को सम्यग्-दर्शन का स्पर्श होने पर इस प्रकार का परमात्म-दर्शन होता है कि जिसके लिये साधक ने इतना प्रयास किया था, पुरुषार्थ किया था, वही अनन्त सामर्थ्य-निधान परमात्मा उसे अपने अन्तर मे ही प्राप्त होने पर, उनका पुनित-पावन दर्शन होने पर, उसका आनन्द असीम होता है, अनन्त होता है। स्वय मे पूर्णता अवलोकन करके वह परम तृप्ति को अनुभव करता है, परम सुख एव शान्ति का अपूर्व आस्वादन करता है ।
___ अब उसे इन्द्र, चन्द्र प्रादि की ऋद्धि भी तनिक भी आकृष्ट नहीं कर सकती। प्रात्मा के सच्चिदानन्द-धन स्वरूप मे रमणता ही उसे अपूर्व सुखशान्ति और आनन्द प्रदान करने वाली है, यह सत्य जीवित होता है । पहले जानता था वह सत्य अब उसके जीवन मे प्रकट होता है.।,
' ' पहले उसे जिस पौद्गलिक सुखाभास मे सुख का भ्रम होता था, वह अब उसे मांग कर लाये आभूपणो की शोभा के समान प्रतीत होता है। मांग कर लाये हुए आभूषणो की शोभा कब तक रहती है ? वे आभूषण कितने समय तक आपको प्रानन्द दे सकेंगे ? अल्प समय के लिये ही तो देंगे न ? फिर तो वह शोभा और आनन्द नष्ट ही होंगे न ? और ऊपर से आपके कप्टो मे वृद्धि ही करेंगे न ?
बस, इसी प्रकार से पौद्गलिक सुख भी क्षणिक आनन्द प्रदान करके, दुःखो की परम्परा का मृजन करके वे चले जाने वाले ही हैं, उन पर आत्मा का कोई अधिकार नही होने से वे कदापि स्थायी नही रह सकते । इस सत्य को हजम करके वह स्वभाव-रमणता का सहज प्रानन्द उठाने मे तन्मय रहता है, लीन रहता है।
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मिले मन भीतर भगवान