Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ पाकर उनमे ही आसक्त रहता है, जिससे उसे स्वतः आत्म-भान होना दुष्कर है, परन्तु जब उसे श्री अरिहन्त परमात्मा का शुभ आलम्बन मिलता है, तब उनकी असीम उपकारी महिमा सुन कर उनके प्रति प्रेम एव भक्ति जागृत होती है और क्रमश उनका नाम-स्मरण, पूजा, स्तवन, वन्दन, प्रार्थना आदि करने से साधक का हृदय निर्मल, निर्मलतर होता जाता है। अशुभ सकल्प-विकल्पो की लहरें शान्त होने पर चित्त-सागर प्रशान्त एव स्थिर हो जाता है तब परमात्मा का सालम्बन-ध्यान करने की शक्ति साधक मे प्रकट होती है। ध्यान मे तन्मय होने पर ध्येय-स्वरूप परमात्मा का ध्याता के निर्मल चित्त मे और अन्तरात्मा मे प्रतिबिम्ब पडता है। उस समय ध्याता, ध्येय एव ध्यान की एकता-रूप समापत्ति सिद्ध होती है । उसे ही परमात्मा-दर्शन कहते हैं । ' इस प्रकार अनेक बार के अभ्यास से साधक परमात्मा के साथ अभेद प्रणिधान सिद्ध करके आत्म-दर्शन (आत्मानुभूति) प्राप्त करता है । आत्मानुभूति केवल अनुभव-गम्य है । यह अनुभव भौतिकता से विरक्त हुए बिना नही होता। अनुभव का उक्त द्वार खोलने के लिये परमात्मा को भक्ति-भाव-सिक्त हृदय से भजना पडता है। बाह्य जगत मे बिखरे मन को परमात्मा मे केन्द्रित करना पड़ता है। ऐसे केन्द्रीकरण के लिये परमात्मा के गुणो का गान एव ध्यान नितान्त आवश्यक है। प्रश्न-क्या प्राणायाम आदि प्रक्रिया द्वारा चित्त को स्थिर अथवा शून्य करके हठ-समाधि द्वारा आत्म-दर्शन नही प्राप्त किया जा सकता ? आज अनेक व्यक्ति इस प्रकार के प्रयोग करते है उसका क्या ? उत्तर -चित्त की शून्य अवस्था करने मात्र से ही प्रात्म-दर्शन नहीं होता । यदि चित्त की शून्य अवस्था करने मात्र से ही प्रात्म-दर्शन हो सकता हो तो समस्त एकेन्द्रिय आदि प्रसज्ञी जीवो को स्वत सिद्ध आत्म-दर्शन म नना पडता है क्योकि उनके मन होता ही नही । मिले मन भीतर भगवान ५७

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293