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दीपक अन्धकार में ज्योति भरता है, उसी प्रकार से शास्त्र त्रिलोकवर्ती पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ स्वरूप मे प्रकाशित करते हैं जिससे अज्ञानान्धकार मे घुटते जीव को स्व-स्वरूप का दर्शन होता है, इस जीव ने अनन्त वार भौतिक पदार्थो का उपभोग किया, फिर भी उसकी प्यास बुझी ही नहीं-उस सत्य का दर्शन होता है।
कर्म-सत्ता ने एक बार श्रेष्ठतम पौद्गलिक पदार्थ प्रदान करके आत्मा का स्वागत, अातिथ्य किया और दूसरी बार वीभत्स से वीभत्स पदार्थों का उपयोग करने के लिये उसे मजबूर करके उसका क्रूरतापूर्ण उपहास किया, तो भी चेतन की पौद्गलिक आसक्ति नही मिटी।
यह सव चिन्तन श्री जिनोक्त शास्त्रो के अध्ययन के द्वारा ही सम्भव है, इसके बिना हो ही नहीं सकता। सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित शास्त्र ही लोकालोक का वास्तविक ज्ञान करा कर जीवो को सुमार्ग की ओर उन्मुख करके दुर्गति मे डूबने से बचा सकते हैं ।
“जो मनुष्य ऐसे सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित शास्त्रो की उपेक्षा करके अदृष्ट अतीन्द्रिय प्रात्मा, धर्म और परमात्मा जैसे विषयो मे चौंच डालने का प्रयास करते हैं वे कदम-कदम पर ठोकर खाकर अत्यन्त दुखी होते हैं।"
सर्वज्ञ परमात्मा के शास्त्रो का सम्मान वास्तव मे सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा का ही सम्मान है । इसलिये ही स्वरचित 'ज्ञानमार' के शास्त्राष्टक मे पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज फरमाते हैं कि
"शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद् वीतराग पुरस्कृत । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन् नियमात् सर्वसिद्धयः ॥"
अर्थ-शास्त्र को आगे करने से श्री वीतराग परमात्मा की आज्ञापालन-स्वस्प पराभक्ति होने से वीतराग ही आगे होते है और उनके प्रभाव मे समस्त योगो की सिद्धि होती है।
मिले मन भीतर भगवान