Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 238
________________ अन्त मे आत्मा का सच्चिदानन्दधन स्वरूप प्रकट किया जा सकता है। इसलिये ही तो महा पुरुषो ने शास्त्रो का इतना गुण-गान किया है। कहा है कि “यस्य त्वनादर शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणा । उन्मत्तगुणतुल्यत्वान्न प्रशसास्पद सताम् ॥" अर्थ -जिसे शास्त्र के प्रति अनादर होता है, उसके श्रद्धा आदि गुण उन्मत्त व्यक्ति के गुणो के समान होने से सत पुरुषो द्वारा प्रशसा-पात्र नही हो पाते। परन्तु जिस भाग्यशाली व्यक्ति को शास्त्रो के प्रति भक्ति होती है उसके लिये वह शास्त्र-भक्ति मुक्ति-दूत हो सकती है । इस प्रकार शास्त्र के अधीन बना साधक ही साधना के क्षेत्र मे यथार्थ रूप से प्रगति कर सकता है । शास्त्र फरमाते हैं कि देव, गुरु, धर्म की परतन्त्रता स्वीकार करने वाला धन्य व्यक्ति सर्व कर्म परतन्त्रता से सर्वथा मुक्त होकर मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। जिनका त्रिभुवन पर एक-छत्र राज्य है उन श्री अरिहन्त परमात्मा की प्राजानुसार जीवनयापन करने वाले भाग्यशाली की सुरक्षा का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व धर्म-महासत्ता वहन करती है । उनकी साधना मे आवश्यक शक्तियो का योग, विकसित शक्तियो का क्षेम (सुरक्षा) योगक्षेमकर परमात्मा के अचिन्त्य सामर्थ्य से होता है। इस प्रकार परमात्म-आज्ञा योग-क्षेम करके साधक की साधना मे प्राणो का सचार करती है, उसे वेगवती बनाती है। आज्ञापालन अर्थात् आज्ञा-पालन । उसमे तर्क के लिये कोई स्थान नही है । यदि कोई सैनिक अपने सेनापति की आज्ञा का पालन करने के समय आजा का पालन करने के बदले तर्क करना है तो वह दण्ड का भागी होता है । उसी तरह से जो मनुष्य त्रिभुवन-पति श्री अरिहत परमात्मा की सर्वथा निरवद्य प्राज्ञा का पालन करने के अवसर पर यदि तर्क करते हैं, कि यह प्राज्ञा ६८ मिले मन भीतर भगवान

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