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निक्षेपा का पालम्बन लेकर ही वह मोक्ष-मार्ग की साधना मे पागे वढ सकता है।
श्री जिनाज्ञा के अगभूत शास्त्रो मे पूर्ण श्रद्धा रखने से ऐसी सन्मति प्रकट होती है, जिससे सम्यग्-ज्ञान एव सम्यग् ध्यान मे रमण करता हुआ साधक आत्म-स्वभाव मे, सच्चारित्र मे स्थिरता प्राप्त करता है ।
___ इस प्रकार शास्त्र-योग के द्वारा वचन-अनुष्ठान मे प्रवृत्त साधक अच्छी तरह परमात्म-स्वरूप का ध्यान कर सकता है और उसमे दक्षता प्राप्त करके परमात्मा के अरूपी गुणो के ध्यान-स्वरूप निरालम्बन ध्यान में प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त करता है।
इस स्तर तक पहुँचा हुआ साधक विषय-कषाय की परिणति से परे होकर अन्तरात्म दशा मे स्थिर होता है, उसके चित्त मे सत् के स्वामित्व की स्थापना होती है, चचलता, अधीरता, उत्सुकता आदि के अश भी उसके चित्त के समस्त भागो मे से लुप्त हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वह आत्मस्वभावी बन कर परमात्मा के ध्यान मे एकात्म हो जाता है। उस समय उसे इतना अपूर्व आनन्द आता है कि विश्व की कोई भी वस्तु चाहे वह मणि हो अथवा माणिक, कनक हो अथवा कामिनी, पुष्प हो अथवा कटक तनिक भी राग अथवा द्वेष का कारण नही बनता । अर्थात् परस्पर विरोधी वस्तुप्रो के प्रति भी वह सम-भाव रखता है और आगे बढ कर मुक्ति एव ससार दोनो के प्रति भी समदृष्टि रखता है, क्योकि ससार का भय सर्वथा नष्ट हो जाने से मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा भी उसके हृदय मे से लुप्त हो जाती है।
इस प्रकार की आन्तरिक दशा ही परा-भक्ति' कहलाती है जो भक्त को भगवत्-स्वरूप की प्राप्ति करा देती है ।
इस प्रकार की भक्ति मे ऐसी ऊष्मा और प्रभा होती है कि करोडो वर्षों मे भी क्षय नही होने वाले कठोर कर्मों को भी श्वासोश्वास जितने अल्प समय मे क्षय कर डालती है ।
मिले मन भीतर भगवान
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