________________
अतः आध्यात्मिक मार्ग मे प्रगति के अभिलाषी साधक को परमात्मा एव उनसे परिचय कराने वाले सद्गुरु की कृपा और अनुग्रह अवश्य प्राप्न । करना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये आज्ञा-प्रधान जीवन जीना ही चाहिये।
तब साधक के समक्ष प्रश्न उठता है कि, “परमात्मा की आज्ञा क्या होगी, जीवन मे उसका पालन किस प्रकार होगा और परमात्म-कृपा किस प्रकार प्राप्त होगी ?"
इन समस्त प्रश्नो का समाधान करने के लिये वह सद्गुरु की शरण मे दौडता है और वहां से उसे ज्ञात होता है कि परमात्मा के शास्त्र ही परमात्मा के वचन हैं। उनमे वर्णित हेय, ज्ञेय, उपादेयता को जीवन मे आत्मसात् करना ही परम कृपालू परमात्मा की परम पावन आज्ञा है।
आत्मा को स्वभाव से भ्रष्ट करने वाले जो जो तत्त्व हैं, जो जो वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ है उनका त्रिविध त्याग करना और जो जो वृत्तियाँ प्रवृत्तियाँ प्रात्मा को स्वभाव मे स्थिर बनाने वाली हैं, उनका त्रिविध अत्यन्त सम्मानपूर्वक स्वीकार करना ही परम पिता परमात्मा की सर्व-कल्याणकारी आज्ञा का निष्कर्ष है।
आज्ञा का उल्लघन करके कोई आत्मा को स्वभाव मे स्थापित नही कर सका और स्वभाव मे रमण करने के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति पर-भाव मे रमणता को टाल नही सका। पर-भाव-रमणता भयानक पराधीनता है, जबकि आज्ञानुसारिता उत्कृष्टतम स्वतन्त्रता की टिकिट है।
अत. परम स्वतन्त्रता के इच्छुक मनुष्य, मुक्ति-कामी मनुष्य अपार उल्लास से श्री जिनाज्ञा का पालन करते हैं आज्ञा-पालक जीवन को जीने योग्य मानते हैं, आज्ञा-निरपेक्ष जीवन मे एक साँस लेने में व्याकुल होते हैं ।
___ इस प्रकार की जिनाज्ञा का पालन जीवन मे तब ही किया जा सकता है जब जीवन का प्रत्येक क्षण शास्त्रानुसार व्यतीत हो और वह तब ही सम्भव हो सकता है यदि शास्त्रो का ससम्मान अध्ययन, मनन, चिन्तन और परिशीलन किया जाये।
मिले मन भीतर भगवान