________________
अर्थ -जिस (अनुष्ठान) मे परम आदर एव परम प्रीति होती है, वह प्रीति कर्ती के लिये हितोदय करने वाली होती है और शेष (प्रवृत्ति) के त्याग से जो करता है, वह प्रीति अनुष्ठान है।
तात्पर्य यह है कि परम तारणहार परमात्मा के प्रति परम आदर एव परम प्रीतिमय तथा अन्य समस्त प्रवृत्तियो के त्याग से परिपूर्ण जो अनुष्ठान । होता है, उसे प्रीति अनुष्ठान कहा जाता है ।
भक्ति-अनुष्ठान के विषय मे शास्त्रो मे कहा है कि--
गौरवविशेषयोगाद् बुद्धिमतो यद्विशुद्धतरयोगम् । क्रियेतर तुल्यमपि ज्ञेय तद्भक्त्यनुष्ठानम् ॥
-१०-४, (षोडशक प्रकरण)
अर्थ.-विशेष गौरव (पूज्य-भाव, सम्मान) के योग से बुद्धिमान पुरुष का जो विशुद्धतर योग वाला अनुष्ठान उस क्रिया के (अन्य व्यक्ति द्वारा किये गये प्रीति अनुष्ठान से) तुल्य प्रतीत होता हो तो भी वह भक्ति-अनुष्ठान होता है। अर्थात् भक्ति-अनुष्ठान मे परमात्मा के प्रति पूज्य-भाव, आदर-भाव विशेष
होता है।
___ आशा ही नहीं विश्वास है कि प्रीति-भक्ति सम्बन्धी इस प्रश्नोत्तरी से परमात्म-पद की साधना के सुन साधक को श्री जिनोक्त साधना की सगीनता मे अटूट श्रद्धा उत्पन्न होगी और परमात्मा को सच्ची श्रेष्ठ भावना से स्मरण करने का बल प्राप्त होगा।
सासारिक पदार्थों के प्रति भावना रखने मे आत्मा का सम्मान नही होता, उसका अपमान होता है, आत्मा का सम्मान तो श्री जिनेश्वर देव द्वारा फरमाये धर्म की आराधना करने से ही होता है। उस आराधना का प्रारम्भ परमात्म-प्रीति है । उस सत्य को अगीकार करके सब लोग परम कल्याणकारी परम पद की उपासना मे, अग्रसर हो ।
मिले मन भीतर भगवान